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संस्कृत जैन कृष्ण साहित्य कालसंवर अपने पुत्रों को आदेश देता है कि प्रद्युम्न को वन में ले जाकर उसका वध कर दें। वे उसे वन में ले जाते हैं और अग्निकुंड में कूद पड़ने के लिए उसे प्रेरित करते हैं। देवी से उसे रत्नमय कुंडल प्राप्त होते हैं। एक अन्य देवी उसे शंख और महाजाल प्रदान करती है। कतिपय अन्य स्थानों के देवियों से भी उसे अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । प्रस्तुत काव्य का यह प्रसंग अन्य ही प्रकार का है । इसी प्रकार द्वारका लौटने पर प्रद्युम्न प्रस्तुत काव्यानुसार जो लीलाएं करता है वे उत्तरपुराण के प्रसंग से भिन्न रूप की हैं। प्रद्युम्नचरितम् का महाकाव्यत्व
__ प्रस्तुत कथाकाव्य महाकाव्यत्व की कसौटी पर सफल सिद्ध होता है। कथावस्तु नियमानुसार अनेक सर्गों में विभक्त है और सर्गों की संख्या भी १४ है । एक सर्ग में एक ही छंद प्रयुक्त हुआ है और सर्गान्त सूचक छंद-परिवर्तन भी मिलता है । काव्य की कथा वस्तु पुराण प्रसिद्ध है और इसमें करुण, वीर और शृंगार रस अंगी रूप में तथा शान्तरस अंग रूप में मिलता है। नगर, समुद्र, पर्वत, सन्ध्या, प्रातः, ऋतु, यात्रा, युद्धादि के प्रभावपूर्ण बर्णन हैं । महाकाव्य का नायक प्रद्युम्नकुमार है, उसकी गणना कामदेवों में की जाती है। यथा
कालेसु जिणवराणां चउवीसाणं हवंति चउवीसा ।
ते बाहुबलिप्पमुहा कंदप्पाणिसमाणाय॥ प्रतिनायक इसमें नहीं मिलता। यद्यपि प्रद्युम्न का संघर्ष श्रीकृष्ण से होता है और कालसंवर से भो, किंतु इनमें से कोई भी खलनायक अथवा प्रतिनायक की कोटि में नहीं है। खलनायक तो नायक द्वारा फलाप्ति के मार्ग में पग-पग पर अवरोध उपस्थित करने वाला पात्र होता है । पाठकों की सहानुभूति भी उसके प्रति नहीं रहती। श्रीकृष्ण अथवा कालसंवर की यह स्थिति नहीं रहती। युवराज घोषित होने पर कालसंवर के पुत्र अवश्य ही प्रद्य ग्न से ईर्ष्या रखते हैं किंतु वे भो निरन्तर विरोध नहीं करते। ६. चौबीस तीर्थकरों के समयों में अनुपम आकृति के धारक बाहबली आदि चौबीस
प्रमुखकामदेवों में माने गए हैं। कामदेव एक पद है जिस पर प्रत्येक तीर्थंकर के काल में किसी पुण्यात्मा को प्रतिष्ठित किया गया है। भगवान नेमिनाथ के समय प्रद्युम्न को यह स्थान प्राप्त था।
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