________________
जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
afa महासेन ने प्रद्युम्नचरितम् की कथावस्तु में कतिपय स्थलों पर परिवर्तन भी कर दिए हैं । उदाहरणार्थ हरिवंशपुराणानुसार अनुरक्ता रुक्मिणी श्रीकृष्ण को प्रणयपाती भेजकर बुलाती है, जबकि प्रस्तुत काव्य में श्रीकृष्ण नारद जी के परामर्श से स्वतः पहुंच जाते हैं और रुक्मिणी का हरण कर देते हैं । हरिवंशपुराण के अनुसार प्रद्य ुम्नकुमार कालसंवर के एक शत्रु सिंहरथ को ही वश में करता है । जब कि प्रस्तुत रचना में प्रद्युम्न द्वारा उसके सभी शत्रुओं का पराभव अंकित किया गया है । इसी से प्रसन्न होकर कालसंवर उसे युवराज घोषित कर देता है । यह उल्लेख तो दोनों ग्रन्थों में मिलता है किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुसार शिशु प्रद्य ुम्न को अपनाते समय ही कालसंवर उसे युवराज बनाने का वचन कंचनमाला को दे देता है । अब उसका पराक्रम देखकर वह अपना वचन पूरा करता है । दोनों काव्यों में वर्णित है कि कालसंवर के पुत्र प्रद्युम्न को अनेक वनों कन्दराओं का भ्रमण करना पड़ा है, जहाँ पर उसे नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र प्राप्त होते हैं । हरिवंशपुराण में यह प्रसंग पर्याप्त रूप से विस्तृत है । कतिपय वनों के नामों ( कपित्थ, वल्लीक आदि) का उल्लेख भी है । प्रस्तुत काव्य में ऐसा नहीं किया
गया ।
૪૬
म्न
उत्तरपुराण में प्रद्युम्न चरित संक्षेप में वर्णित है, किन्तु महासेन कवि ने (प्रद्य ुम्नचरितम् ) काव्य में इसे ही पर्याप्त रूप से आधार के रूप में स्वीकारा है । धूमकेतु का वैर एवं उसके द्वारा प्रद्युम्नहरण, प्रद्युम को अपनाते समय कंचनमाला द्वारा कालसंवर से अनुरोध कि इस बालक को युवराज बनाया जाए । कालसंवर द्वारा प्रद्युम्न को वन भ्रमण कराया जाना और प्रद्युम्न द्वारा नाग, राक्षसादि को वश में किया जाना जैसे कई ऐसे प्रसंग हैं जो उत्तरपुराण और प्रस्तुत काव्य में समान रूप से उपलब्ध होते हैं । साथ ही इन दोनों रचनाओं में कतिपय अन्तर भी मिलते हैं । कालसंवर के परिवार में बालक का नाम प्रद्युम्न या मदन नहीं है । यहाँ पर एक नाम देवदत्त रखा जाता है। प्रद्य ुम्न को गौरी और प्रज्ञप्ति दो विद्याएँ प्राप्त होती हैं । उत्तरपुराण के अनुसार केवल एक प्रज्ञप्ति विद्या की प्राप्ति होती है । एक प्रमुख असमानता विशेष रूप से ध्यातव्य है ।
वह यह कि कंचनमाला सर्व प्रकार से निराश होकर जब प्रद्युम्नकुमार पर शील भंग करने का मिथ्या आरोप लगाती है तो उत्तरपुराणानुसार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org