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संस्कृत जैन कृष्ण साहित्य
४५ बारहवाँ सर्ग
तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का पल्लव देश से विहार कर सौराष्ट्र में आगमन होता है। यादवों ने समवशरण में जाकर प्रभु की वंदना की। भगवान ने बलदेव के प्रश्न के उत्तर में व्यक्त किया कि द्वैपायन ऋषि, मदिरा और अग्नि के कारण द्वारका नष्ट हो जाएगी और जरत्कुमार के बाण से श्रीकृष्ण का निधन होगा। आत्मग्लानि वश जरत्कुमार वन में जाकर आखेटक जीवन बिताने लगता है । यादवगण प्रभु की इस भविष्य-वाणी से चिन्तित हो उठते हैं। तेरहवाँ सर्ग
श्रीकृष्ण अपनी राजसभा में आसीन थे । अन्य यादवकुमारों के साथ प्रद्युम्न हरि की सेवा में उपस्थित होता है और भगवान नेमिनाथ के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण कर लेने की अपनी अभिलाषा व्यक्त करता है। माता-पिता से अनुमति पाकर वह दीक्षा ग्रहण कर लेता है । सत्यभामा और रुक्मिणी भी दीक्षित हो जाती हैं। चौदहवाँ सर्ग
प्रद्युम्न मुनि घोर तपस्या करते हैं । गुणस्थानों का आरोहण करके और कर्म प्रकृतियों का क्षय करके वे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। शांब, अनिरुद्ध, काम आदि भी मुनि जीवन ग्रहण कर लेते हैं । अंततः मुनि प्रद्युम्न अधातिया कर्मों को नष्ट कर निर्वाण लाभ कर लेते हैं ।
संक्षेप में चतुर्दश सर्गों में वर्णित प्रद्युम्न चरित की यही कथा है। आधार-ग्रन्थ कथानक-स्रोत
इस संस्कृत महाकाव्य के कथानक के आधार मुख्यतः दो जैन पौराणिक ग्रन्थ रहे हैं।' जिनसेनाचार्य (प्रथम) कृत हरिवंशपुराण एवं २ गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण। प्रस्तुत कथानक का संबंध हरिवंशपुराण के ४७ सर्ग (२०वें पद्य से) एवं ४८ वें सर्ग (३६वें पद्य तक) से है। इसी प्रकार उक्त कथावस्तु उत्तरपुराण के ७२वें पर्व में विवेचित है।
७. भारतीय ज्ञानपीठ काशी-हरिवंशपुराण प्र० सन् १९६२ ८. भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित उत्तरपुराण प्र० सन् १९५४
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