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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
नायक के जीवन को सर्वाश में ग्रहण करते हुए कथानक का गठन किया गया है । इस प्रकार कथानक महाकाव्योपयुक्त बन गया है, किन्तु कथा क्रम का शास्त्रीय विकास इसमें नहीं मिलता। यह एक चरित काव्य ही है और सीधे-सीधे नायक के जीवन की घटनाओं को चित्रित करने की ओर ही कवि का ध्यान रहा है । यदि प्रद्युम्न द्वारा मोक्ष प्राप्ति को फल माना जाए तो इस फल को लक्ष्य मानते हुए कथानक का विकास ही नहीं हुआ। आद्योपांत इस फल की प्राप्ति का प्रयत्न नायक द्वारा नहीं होता और न इस प्राप्ति के मार्ग में व्यवधान आये हैं। वस्तु-व्यापार-वर्णन
__देश-काल परिस्थिति के चित्रण में भी कवि का कौशल प्रकट हुआ है । महाकाव्य द्वारा सौराष्ट्र देश का बहुपक्षीय, सजीव चित्र उभरकर आया है। नदी-सरोवर, वन-उपवन, वनचर, जीवजन्तु आदि का यथास्थान संदर वर्णन हुआ है । वस्तु वर्णन से कथ्य भी काफी सरस हो गया है। महाकाव्य में यह वस्तु वर्णन दो रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। कवि द्वारा शुद्ध वरतु वर्णन और दूसरा पात्रों की भावनाभिव्यंजना के रूप में। दोनों स्वरूप प्रस्तुत काव्य में वर्णित हैं।
प्रथम प्रकार के वस्तुव्यापार वर्णन में सौराष्ट्रदेश के वस्तुव्यापारवर्णन द्रष्टव्य है :
सहस्रसंख्यैः सितरक्तनीलैः सरांसि यस्मिज्जलविरेजुः ।
कुतूहलेनेव मदीयलक्ष्मी द्रष्टुं समेतैः सुरराजनेत्रैः ।19 जिस सौराष्ट्र देश के सरोवरों में श्वेत रक्त और नीलवणं के सहस्रों कमल विकसित हो सुशोभित हो रहे थे । उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानो इन्द्र के सहस्र नेत्र कुतूहल के कारण इस देश की लक्ष्मी को देखने के लिए प्रस्तुत हो गए हों।
रमणियां अपने भवनों की छत पर बैठकर गीत गाती थीं, उनके मनोहर गीतों को सुनकर चन्द्रमा की गोद में रहने वाला हरिण मधुर गान
१०. प्रद्युम्नचरित्र, संपा०- नाथूराम प्रेमी, प्र. हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई।
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