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संस्कृत जैन कृष्ण साहित्य
हैं। पूर्वभव के इसी वैर के कारण धूमकेतु प्रद्युम्न का अपहरण करता है। नारद जी को पूर्वभव की इस कथा का ज्ञान सीमन्धरस्वामी कराते हैं। आठवाँ सर्ग
बालक प्रद्युम्न कालसंवर के राजपरिवार में बड़ा होने लगता है । काल:संवर के अनेक शत्रुओं को वह पराजित करता है। प्रसन्न कालसंवर अपनी पत्नी को दिए गए वचन को पूर्ण करते हुए प्रद्युम्न को युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर देते हैं। परिणामतः उसके ५०० पुत्र प्रद्यम्न से ईर्ष्या करने लगते हैं। प्रतिशोधवश वे उसे नाग, राक्षसादि के निवासवाली विजयाद्ध कन्दरा में ले जाते हैं और अपने अपूर्व पराक्रम से प्रद्युम्न उन्हें अपने वश में कर लेता है।
प्रद्यम्न ज्यों-ज्यों आयु प्राप्त करता जाता है, त्यों-त्यों वह रूप सौंदर्य और शक्ति-पराक्रम में अधिकाधिक निखरता चला जाता है। रानी कंचनमाला उसके रूप माधुर्य पर आसक्त हो जाती है और प्रणय प्रस्ताव करती है । इस अनौचित्य से प्रद्युम्न हतप्रभ रह जाता है। किंतु, कंचनमाला की काम प्रबलता देख कर वह युक्ति से काम लेता है। यदि वह कंचनमाला का प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है तो उसे कालसंवर और उसके पुत्रों से संघर्ष करना पड़ेगा । ऐसी अवस्था में आत्मरक्षा के उपाय के बहाने से वह कनकलता से विद्याएं ग्रहण कर लेता है । अंततः जब कंचनमाला की मनोकामना प्रद्युम्न द्वारा पूर्ण नहीं होती तो वह उस पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगा देती है। राजा और उसके पुत्र क्रुद्ध हो जाते हैं। तब तक प्रद्युम्न की इस परिवार में आवास की अवधि पूर्ण हो जाती है और द्वारका के लिए प्रस्थान करता है। उसे दंडित करने के लिए राजा सेना भेजता है । वह स्वयं भो जाता है, किन्तु विद्याबल से प्रद्युम्न की सारो कथा का विवेचन करते हुए कंचनमाला के षड्यंत्र का रहस्य प्रकट कर देता है। इसमें कालसंवर संतुष्ट होकर उस पर प्रसन्न हो जाता है। नौवाँ सर्ग
प्रद्युम्न नारद जी के साथ जब द्वारका पहुंचता है तो उस समय वहाँ विवाहोत्सव का वातावरण है । सत्यभामा के पुत्र भानु का पाणिग्रहण दुर्योधन की पुत्री उदधि से होने वाला था। वचनबद्धता के अनुसार रुक्मिणी को अपने
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