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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य मुंज का उत्तराधिकारी उसका अनुज सिंधुल था। जिनका दूसरा नाम नव साहसांक सिंधुराज था। इसी सिंधुल का पुत्र भोज था। उसका वर्णन मेरुतुंग की रचित प्रबंध चितामणि में मिलता है । मुंज के दो दान पत्रों का उल्लेख क्रमशः ६७४ ई० सन् अर्थात् संवत १०३१ और सन् ६७६ वि० सं० १०३६ मिलता है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि प्रद्युम्न चरित की रचना ६७४ ई० स० के आसपास हुई है, और महासेन सूरि का समय १०वीं शती का उत्तरार्ध है। यह रचना संवत् १९७३ में प्रकाशित हुई है। जयपुर के कई ग्रन्थ भण्डारों में इस कृति को हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध
प्रद्युम्न चरित को कथावस्तु प्रथम सर्ग
द्वारावती की वैभवशाली नगरी में पराक्रमी श्रीकृष्ण का शासन था। इनको अतोव सुन्दरो पट्टरानी सत्यभामा थो । पृथुवंशोत्पन्न श्रीकृष्ण स्वयं भी अपूर्व सौंदर्य राशि के धारक थे। उनके समक्ष समस्त शत्रु नतमस्तक हो जाते थे : द्वितीय सर्ग
___नारद जो का द्वारका आगमन होता है और शृंगार व्यस्त सत्यभामा द्वारा उनकी उपेक्षा होती है । नारद जी ने सत्यभामा का रूपगर्व चूर करने के हेतु से श्रीकृष्ण का विवाह किसी अत्यंत रूपवती राजकन्या से कराने की योजना बनायी। वे कुण्डिनपुर के नरेश भीष्म के यहाँ पहुंचे। उसकी राजकुमारी कन्या रुक्मिणी नारद जी का स्वागत सत्कार करती है और उनको नम्रतापूर्वक नमन करती है। इससे प्रसन्न होकर वे उसे श्रीकृष्ण प्राप्ति का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इस अपरूप सुन्दरी का चित्रफलक लेकर वे पुनः श्रीकृष्ण के पास आ जाते हैं और श्रीकृष्ण रुक्मिणी पर अनुरक्त हो जाते हैं। वे मन ही मन उसे प्राप्त करने का संकल्प कर लेते हैं । रुक्मिणी ने भी ४. श्रीलाटवर्ग नभस्तलपूर्णचंद्र जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४११ ५. माणिकचंद्र दिगंबर जैन ग्रंथमाला, बंबई ६. जिनवाणी मासिक पत्रिका, जुलाई १९६६ पृ० २६,
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