________________
प्राकृत आगमेतर जैन श्रीकृष्ण साहित्य विनय लक्षण प्रतिद्वार में विनय का स्वरूप, स्वाध्याय-रति लक्षण द्वार में वैय्यावत्य, स्वाध्याय और नमस्कार का माहात्म्य बतलाया गया है। अनायतन त्याग-लक्षण द्वार में कुसंग का फल, महिला संसर्ग के त्याग का प्रतिपादन है। पर-परिवाद निर्व त्ति लक्षण में परदोष कथा को गहित कहा है। धर्म स्थिरता लक्षण द्वार में जिन पूजा आदि का महत्त्व दिखलाया गया है परिज्ञान लक्षण द्वार में आराधना की विधि का प्रतिपादन है । एक प्रकार से इस कृति में जैन आचार लक्षणों का प्रतिपादन हुआ है। (६) कुमारपालपडिबोह (कुमारपालप्रतिबोध)
कुमारपालपडिबोह के रचनाकार सोमप्रभसूरि आचार्य विजयसिंह सूरि के शिष्य थे। कुमारपाल प्रतिबोध की रचना सन् १९८४ संवत् १२४१ की मानी जाती है। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने गुजरात के राजा कुमारपाल को समय-समय पर जो शिक्षाएं और उपदेश दिए; उनका इन्होंने व्यवस्थित संकलन तैयार किया और प्रस्तुत ग्रन्थ ने आकार ग्रहण कर लिया। इस ग्रन्थ में दृष्टांत रूप में ५४ कथाएं भी कही गयी हैं । इसी क्रम में मदिरापान के घातक परिणाम बताते हुए द्वारका दहन की कथा वर्णित हुई है और तप की महत्ता प्रतिपादित करने के प्रयत्न में रुक्मिणी की कथा कही गई है। (७) कण्हचरित (कृष्णचरित)
प्रस्तुत कृति के रचनाकार देवेन्द्रसूरि जगत्चंद्र सूरि के शिष्य माने जाते हैं । जैन पुराणों में वर्णित कृष्णकथा को ही प्रस्तुत कृति में स्थान मिला है। कण्हचरित के रचनाकाल के विषय में इतिहास मौन है। किंतु इस तथ्य से इस सम्बन्ध में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है कि रचनाकार देवेन्द्रसूरि का स्वर्गवास सन् १२७० में हुआ था। कण्हचरित में कृष्णकथा की अतिव्यापक परिधि समाविष्ट हैं ।16 इसमें कोई संदेह नहीं है कि वसुदेव के
१५. कुमारपाल पडिबोह (कुमारपाल प्रतिबोध) सम्पा० मुनि जिनविजय जी,
सन् १९२० में ओरिएण्टल गायकवाड सीरिज में प्रकाशित-बड़ौदा, गुजराती
अनुवाद-प्र० आत्मानन्द सभा, बंबई । १६. कण्हचरित-ले० देवेंद्र सूरि, प्र० केशरीमल संस्था, रतलाम, सन् १९३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org