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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य (६) चरित में उदात्त तत्त्व उपलब्ध है । परिसंवादों में अनेक नैतिक
तथ्यों का समावेश हुआ है। उदाहरणार्थ एक संवाद द्रष्टव्य
धन सार्थवाह के एक प्रधान कर्मचारी से एक वणिक के ईर्ष्यावशपूछने पर कि सार्थवाह के पास कितना धन है ? उसमें कौन-कौन से गुण हैं ? वह क्या दे सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर में मणिभद्र सार्थवाह के सम्बन्ध में उत्तर देता हुआ कहता है कि मेरे सेठ के पास एक वस्तु है-विवेक भाव । और, जो नहीं है वह वस्तु है-अनाचार।दो वस्तुएं-परोपकारिता तथा धर्म की अभिलाषा तो है, पर अहंकार व कुसंगति नहीं है। उनमें कुलशील एवं रूप तो है, पर दूसरे को नीचा दिखाना, औध्दत्य और परदारागमन ये दोष नहीं हैं। यथा---
भणिओ य तेण मणिभद्दो जहा-अहो मुद्ध मुह ! कि तुम्ह सत्यवाहस्स अत्थजायमस्थि ? केरिसा वा गुणा ? कि पभूयं वित्ते, किंवा दाउं समत्थोत्ति । ......... इह अम्ह सामियस्स एकं चेव अस्थि विवेइत्तं, एवकं च पत्थि अणायारो।..100
___ अस्तु, भाव-भाषा व काव्य का विविध विधाओं से युक्त आचार्य शीलांक की यह एक महत्त्वपूर्ण कृति जैन साहित्य भण्डार को गौरव प्रदान करती है । इसका गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। (३) चउप्पन्नमहापुरिस चरिय-आम्रकवि
प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ के १०३ अधिकारों में चौपन महापुरुषों के चरित्र वर्णित हैं। इसका मुख्य छन्द गाथा है। श्लोक परिमाण १००५० है जिसमें ८७३५ गाथाएं और १०० इतरवृत्त हैं। ग्रन्थ के आदि अन्त में अम्म शब्द के अलावा कवि ने अपनी कोई विशेष जानकारी नहीं दी है। ग्रन्थ समाप्ति के उपसंहार में बतलाया गया है कि ६ प्रतिवासुदेवों को जोड़ देने से तिरसठ शलाका पुरुष बनते हैं।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वि० सं० ११६० में रचित 'आख्यानमणिकोश' वृत्तिकार आम्रदेव और प्रस्तुत कृति के रचयिता एक ही हैं । १०. सेठ देवचंद लालभाई, बंबई-सन् १९६८, अनु० आचार्य हेमसागरसूरि ।
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