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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
सोमसिरि लंभक में आर्य अनार्य, वेदों की उत्पत्ति, ऋषभ का निर्वाण, बाहुबलि और भरत का युद्ध, नारद, पर्वत और बसु का संबंध तथा वसुदेव के वेदाध्ययन का प्ररूपण है। सप्तम लंभक के पश्चात् प्रथम खण्ड का द्वितीय अंश आरंभ होता है। पउमा लंभक में धनुर्वेद की उत्पत्ति बताई है। पुंडा लंभक में पोरागम (पाकशास्त्र) में विशारद नंद और सुनंद का नामोल्लेख है। पुंड्रा की उत्पत्ति तथा नमि जिनेन्द्र द्वारा प्रदत्त चातुर्याम धर्म का उपदेश वर्णित है। सोमसिरि लंभक में इन्द्रमह का उल्लेख है। मयण गा लंभक में सनत्कुमार चक्रवर्ती का व्यायाम शाला में पहुंचकर तेलमर्दन कराना, कान्यकुब्ज की उत्पत्ति का वृत्तान्त, राम का जीवन वृत्त, आदि वर्णन उपलब्ध होते हैं। बालचंदा लंभक में मांसभक्षण निषेध का उपदेश दिया गया है। बंधुमती लंभक में वसुदेव द्वारा दिया गया तापसों को उपदेश व महाव्रतों का विवेचन है। साथ ही मृगध्वजकुमार तथा भद्रकमहिष के चरित-वर्णन भी हैं।
१६ व २०वाँ लंभक नष्ट हो गया है। केवल मती लंभक में शाँतिजिन का जीवन चरित, त्रिविष्टप् तथा वासुदेव का परस्पर संबंध, मेघरथ के आख्यान में जीवन को प्रियता को बतलाते हुए कवि ने लिखा है :8
हंतूण परप्पाणे अप्पाणं जो करइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, करण नासेइ अप्पाणं ॥ दुक्खस्स उव्वियेतो, हेतूण परेइ पडियाएँ ।
पाविहिति पुणो दुक्खं, बहुययरं तन्निमित्तेण ।। अर्थात् जो दूसरों के प्राणों की हत्या करके अपने को सप्राण करना चाहता है, वह आत्मा का नाश करता है । जो दुःख से खिन्न हुआ, वह दूसरे की हत्या करके प्रतिकार करता है, वह उसके निमित्त से और अधिक दुःख पाता है।
पउमावती लंभक में हरिवंश कुल की उत्पत्ति का कथानक है। देवकी लंभक में कंस के पूर्वभव का विवेचन है।
अस्तु, भाव भाषा की दृष्टि से यह एक अति उत्तम कृति है जो जन धर्म की साहित्य गरिमा को उजागर करती है।
८. वसुदेव हिण्डी-मेघरथ आख्यान-वही।
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