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प्राकृत आगमेतर जैन श्रीकृष्ण साहित्य विभाग से प्रारंभ होता है। उक्त लंभकों में १६ और २०वें लंभक अनुपलब्ध हैं तथा २८वां लंभक अपूर्ण है।
इसके द्वितीय खण्ड में नरवाहनदत्त की कथा वर्णित है । उसमें शृंगारकथा की मुख्यता है तथापि इस कथा में धर्म का उपदेश भी यथास्थान सम्मिलित किया गया है। कुल मिलाकर दोनों खण्डों में १०० लंभकों का समावेश है। द्वितीय खण्ड के अनुसार वसुदेव १०० वर्ष तक परिभ्रमण करते हैं तथा १०० कन्याओं के साथ उनका विवाह होता है। गद्यात्मक समासांत पदावलि में लिखी गयी इस विशिष्ट रचना की भाषा सरल, स्वाभाविक व प्रसादगुण युक्त है। मुख्य कथा के साथ अनेक अंतर्कथाएँ तीर्थंकर शलाकापुरुषों की भी हैं। साथ ही जैन धर्म संबंधी महाव्रतों का स्वरूप, परलोक सिद्धि, मांसभक्षण दोष आदि तत्वों का विवेचन भी किया गया है। कहप्पत्ति के अंत में वसुदेव चरित की उत्पत्ति बतलाई गयी है। मुख नामक अधिकार में शंब ओर भानू की क्रीडाओं का वर्णन है । भानु के पास शुक था और शंब के पास सारिका, दोनों सुभाषित कहते हैं । यथाः
उक्कामिव जोइभालिणी सुभुयंगामिव पुफ्फियं लतं ।
विबुधो जो कामवत्तिणि, मुयइ सो सुहिओ भविस्सइ ॥ अर्थात अग्नि से प्रज्वलित उल्का की भाँति और भुजंगी से युक्त पुष्पित लता की भाँति जो पंडित कामवत्तिनी (काममार्ग) का त्याग करता है वह सुखी होता है।
प्रतिमुख में अंधकवृष्णि का परिचय देते हुए कवि ने उसके पूर्वभव का संबंध बताया है।
शरीर अध्ययन प्रथम लंभक से आरंभ होकर २९वें लंभक तक पूर्ण होता है। सामा विजया नाम के प्रथम लंभक में समुद्रविजय आदि नौ वसुदेवों के पूर्वभवों का वर्णन है। वसुदेव घर का त्यागकर चलते हैं। सामली का परिचय सामली लंभक में दिया गया है। विष्णकुमार का चरित गंधर्वदत्ता लंभक में है। नीलांजना लंभक में ऋषभदेव का वर्णन करते हए उनके जन्म, राज्याभिषेक, प्रव्रज्या आदि का वर्णन है। उग्र, भोग, राजन्य और नाग ये चार गण कौशल जनपद में राज्य करते थे। ऋषभदेव ने प्रजा को अनेक प्रकार की कलाएं सिखलायी।
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