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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
काल ईसा की ५वीं शताब्दी माना जाता है । ग्रन्थ के पूर्वभाग के रचनाकार संघदास गणि वाचक रहे हैं, किंतु इसके उत्तरभाग की रचना धर्मसेन गणि द्वारा हुई ऐसी मान्यता रही है । वसुदेव श्रीकृष्ण के पिता थे । उन्हीं का भ्रमण वृत्तांत प्रस्तुत ग्रन्थ में है । देवकी लम्बक में श्रीकृष्ण के जन्म आदि का वर्णन है। पीठिका में प्रद्युम्न, शांबकुमार की कथा और श्रीकृष्ण की ह अग्रमहिषियों का वर्णन है । साथ ही रुक्मिणी से प्रद्युम्नकुमार का जन्म, उसका अपहरण, माता-पिता से उसका पुनर्मिलन आदि की घटनाओं का भी वर्णन मिलता है । प्रद्युम्नकुमार के पूर्वभवों पर भी प्रकाश डाला गया है । इसी प्रकार जाम्बवती से शाम्बकुमार का जन्म और उसके जीवन की अन्यान्य घटनाएं भी वर्णित की गयी हैं। इसके अतिरिक्त हरिवंश की उत्पत्ति, कंस के पूर्णभव और कौरव पांडवों का वर्णन भी किया गया है ।
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वसुदेव हिण्डी के पूर्व भाग में २६ लंभक और ११ हजार श्लोक और उत्तर भाग में ७१ लंभक और १७ हजार श्लोक हैं । इस ग्रन्थ की शैली में गुणाढ्य कृत बृहत्कथा की शैली के दर्शन होते हैं । कथासरित्सागर की भूमिका में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी इस वास्तविकता की ओर - संकेत किया है ।" वसुदेव हिण्डी की भाषा प्राचीन महाराष्ट्रीय प्राकृत है । "
कथा का विभाजन ६ अधिकारों में किया गया है - कहुप्पत्ति (कथाउत्पत्ति), पीढिया (पीठिका), मुँह (मुख), पडिमुह (प्रतिमुख), सरीर (शरीर ) और उवसंहार (उपसंहार ) । कथोत्पत्तिपूर्ण होने पर धम्मिल्ल - हिण्डी ( धम्मिल चरित) प्रारंभ होता है और इसके पूर्ण होने पर क्रमश: पीठिका मुख प्रतिमुख प्रारंभ होते हैं । उसके बाद प्रथम खण्ड के प्रथम अंश में सात लंक हैं । यहीं से शरीर विभाग प्रारंभ होता है जो दूसरे अंश के २६ वें लंभक तक चलता है । वसुदेव के परिभ्रमण की आत्मकथा का विस्तार इसी
५. प्राकृत साहित्य का इतिहास -- डॉ० जगदीशचंद्र जैन, पृ० 382 ६. कथा सरित्सागर की भूमिका : लेखक - श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ।
७. वसुदेव हिण्डी मुनि पुण्यविजय जी द्वारा संपादित, आत्मानंद जैन ग्रंथ माला भावनगर की ओर से सन् १९३०-३१ में प्रकाशित । इसका गुजराती भाषांतर प्रोफेसर सांडेसरा ने किया है जो उक्त ग्रंथमाला की ओर से ही भावनगर से वि० सं० २००३ में प्रकाशित हुआ है । देखिये गुजराती अनुवाद |
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