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प्राकृत आगमेतर जैन श्रीकृष्ण साहित्य
भूमिका
श्रीकृष्ण चरित्र को समग्र जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन साहित्य और श्रीकृष्ण चरित का पारस्परिक सम्बन्ध बड़ा मूल्यवान रहा है । जहाँ श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं तथा उनकी महत्ता के प्रचार प्रसार का श्रेय जैन साहित्य को प्राप्त होता है, वहां यह भी सत्य है कि श्रीकृष्ण के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से जैन धर्म के सिद्धांतों के प्रतिपादन और जन सामान्य में उसके प्रचार के कार्य में भी किसी सीमा तक सहायता मिली है। जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, श्रीकृष्ण जीवन के प्रसंग जैन साहित्य में सर्वप्रथम आगमों में समाविष्ट हुए हैं। आगम ग्रन्थों का स्वरूप समझने के क्रम में यह सारा तथ्य स्वयं स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का एक अत्यंत स्तुत्य, समर्थ और सफल प्रयत्न यह रहा है कि उन्होंने अपने धार्मिक विचारों का जनता में प्रचार करने के लिए तत्कालीन जनप्रिय लोक भाषाओं और कथाओं का आश्रय लिया। इन कथाओं को जनता पीढ़ियों से समझी हुई थी तथा इन्हें हृदयंगम किये हुए थी। अतः इनमें पाया जाने वाला साम्य स्थिर करके भगवान ने अपने विचारों को सुगमता के साथ जनमानस का अंग बना दिया। जिन लोक प्रचलित और जनप्रिय कथाओं के चुनाव का अपने प्रयोजन से भगवान ने चयन किया और जिनका उपयोग किया, उनमें श्रीकृष्ण के जीवन की कथाएं भी सम्मिलित रहीं। ऐसा होना श्रीकृष्णचरित्र की तत्कालीन लोकप्रियता के आधार पर स्वाभाविक ही लगता है।
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