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प्राकृत जैन आगम श्रीकृष्ण साहित्य तथा कर्तव्य का जैसा सुन्दर समन्वय हुआ है वैसा अन्य साहित्य में दुर्लभ
आजकल 'आगम' शब्द का प्रयोग अधिक होने लगा है किन्तु अतीत काल में 'श्रु त' शब्द का प्रयोग अधिक होता था। श्रु तकेवली, श्रु तस्थविर जैसे शब्दों का प्रयोग भी आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है। किन्तु कहीं पर भी आगम केवली या आगम-स्थविर का प्रयोग नहीं हुआ है।
सूत्र , ग्रंथ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम, आप्तवचन, ऐतिह्य आम्नाय और जिन वचन, श्रु त ये सभी शब्द आगम के हो पर्यायवाची शब्द हैं। श्रमण भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इंद्रभूति गौतम ने इस जिनवाणी को १२ अंग ग्रंथों तथा १४ पूर्वो के रूप में संयोजित किया था । अंग ग्रंथों तथा पूर्वो के नाम इस प्रकार हैं :
१२. अंग-ग्रंथ-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवाद ।
१४ पूर्व-उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, अवंध्य, प्रणायु, क्रियाविशाल, लोकबिन्दुसार।
जो मुनि उपरोक्त सम्पूर्ण वाणी की अवधारणा कर सका उसे श्रुतकेवली कहा गया। श्र तकेवली शब्द से यह प्रतिभासित होता है कि जिन वाणी प्रारम्भ में श्रु तरूप में ही सुरक्षित रही। जिस प्रकार वेद-वेदांग लम्बे समय तक श्र ति-रूप में बने रहे । यही स्थिति प्रारंभ में जैन साहित्य की बनी रही । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्रु तकेवली हुए हैं जिनमें से भद्रबाहु अंतिम थे।10
७. सा सिज्झइ जेण वयं सत्थं तं बा विसेसियं नाणे ।
आगम एव य सत्थं आगमसत्थं तु सुयनाणं । ८. नन्दीसूत्र--विशेषावश्यकभाष्य गा० ४४६ ६. सुयसुत्तगन्थ-सिद्धतपवयणे आणवयणउवएसे पण्णवण्ण आगमे या एकट्ठा पज्जवा
सुत्त-अनुयोगद्वार, विशेषावश्यक भाष्य १०. प्रभवस्वामी, शयम्भव, यशोभद्र, सम्भूतिविजय और भद्रबाहु (श्वेताम्बर परपरा--
नुसार)
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