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________________ २५६ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य सदादर्शों का उत्थान होता चलता है और कभी उसके चरम पर पहुंचकर समय अधोमुखी होने लगता है। जैसे घड़ी की सुईयां ६ से १२ के अंको तक निरंतर उच्च से उच्चतर होती रहती हैं और तत्पश्चात् १२ से ६ तक की यात्रा में वे निम्न से निम्नतर दिशा में गमन करने लगती हैं। तात्पर्य यही है कि पतन से उन्नति की ओर और उन्नति से अपकर्ष की ओर की यह गति जगत की नियति है जो सदा निरंतरित रहा करती है। धर्मभावना भी क्रमशः विकसित होती रहती है और पुनः संकुचित होने लगती है। विकास और हास की यह अवस्था सर्पवत् कही जाती है। सर्प की पूंछ से फन की ओर आकार उत्तरोत्तर विकास का प्रतीक माना जा सकता है, और फन से पूंछ की ओर क्रमशः हास की ओर । प्रथम स्थिति को उत्सर्पिणी काल और द्वितीय को अवसर्पिणी काल कहा जाता है। उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद पुनः उत्सर्पिणी काल का यह अजस्र क्रम असमाप्य माना जाता है । घड़ी की सुईयां भी तो ६ से १२ तक चढ़कर १२ से ६ तक नीचे उतरती रहती हैं और पुनः ६ से १२ तक की उत्कर्ष यात्रा आरम्भ कर देती हैं । सुईयों की ये दोनों यात्राओं को जैसे ६-६ भागों में बांटा गया है, वैसे ही प्रत्येक उत्सपिणी काल और अवपिणी काल भी ६-६ खण्डों में विभक्त होता है। प्रत्येक खंड को “आरा" कहा जाता है। इन आरों की अवधि समान नहीं होती है कोई छोटा और कोई बड़ा होता है। इस प्रकार एक काल चक्र में एक उत्सर्पिणी काल और एक अवसर्पिणी काल रहता है ओर कुल १२ अरक होते हैं। प्रत्येक काल चक्र के तीसरे और चौथे अरक में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं । वर्तमान समय में जो धर्म भावना का अपकर्ष ओर क्षीणता दृष्टिगत होती है, इससे भी यही तथ्य संकेतित होता है कि यह अवसर्पिणी काल है । इस अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों की परंपरा समाप्त हो गयी। २४वें तीर्थंकार भगवान महावीर हुए हैं और अभी यह ५वां आरा है। स्पष्ट है कि प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में एक-एक तीर्थंकर-परंपरा (२४ तीर्थंकर) रहती है। इसी प्रकार प्रत्येक काल में १२ चक्रवर्ती, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव और ६ बलदेव होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक काल में ६३ श्लाघनीय महापुरुष होते हैं। "त्रिषष्टिशलाका-महापुरुष" में इस अव-सर्पिणी काल के इन्हीं ६३ श्लाघनीय पुरुषों के चरित वणित हैं। भगवान अरिष्टनेमि इस अवसर्पिणी काल के २२वें तीर्थंकार हुए हैं। इन्हीं के काल में हवें वासुदेव श्री कृष्ण, वें प्रति वासुदेव जरासंध और हवें बलदेव बलराम हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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