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________________ तुलनात्मक निष्कर्ष, तथ्य एवं उपसंहार २५५ साहित्यिक स्वरूप है, अन्यथा अन्य धार्मिक साहित्य में वे घुल-मिलकर एकाकार कदापि नहीं हो पाती। हमारा जैन कथा साहित्य इस दृष्टि से एक विराट धरातल पर अवस्थित है । वह अखिल भारतीय संस्कृति सापेक्ष्य है। किसी प्रकार का सांस्कृतिक संकोच इसमें दृष्टिगोचर नहीं होता। यही कारण है कि इस कथा-साहित्य का सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक अक्षुण्ण महत्व है। जैन कथाओं में जीवन का बड़ा ही प्रभाव पूर्ण चित्र मिलता है। वैदिक परंपरा और जैन परंपरा में श्रीकृष्ण कथा का तुलनात्मक विवेचन वासुदेव श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण वासुदेव जैन एवं वैदिक परंपराओं में श्रीकृष्ण के जीवन वृत्त के स्वरूप पर्याप्त रूप से समरूप हैं, क्योंकि दोनों ही के लिए उद्गम स्रोत इतिहास ही है । यह अन्य बिंदु है कि दोनों परंपराओं में उस एक ही ऐतिहासिक वृत्त को प्रस्तुत करने के प्रयोजन भिन्न-भिन्न हैं, अतः स्वरूप वैभिन्न भी आ गया है । इस दृष्टि से एक प्रमुख असमानता यह पायी जाती है कि यद्यपि दोनों ही परंपराओं में श्रीकृष्ण वासुदेव के पुत्र हैं, किंतु जहां वैदिक परंपरा में वे वासुदेव श्रीकृष्ण हैं, वहां जैन परंपरा में वे "श्रीकृष्ण वासुदेव' हैं । सामान्यतः इन दोनों में चाहे अंतर नहीं किया जाए और दोनों का प्रयोग किसी स्थल के लिए हो सकने के योग्य प्रतीत होता है। फिर भी दोनों में मौलिक अंतर हैं । वैदिक परंपरा में “वासुदेव श्रीकृष्ण" का तात्पर्य मात्र यही है-वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण और इस रूप में समग्र इतिहास में श्रीकृष्ण ही एक मात्र पात्र हैं । यद्यपि वसुदेव के अन्य अनेक पुत्र थे। बलराम भी उन्हीं के पुत्र थे, किंतु वे वासुदेव के अपर नाम का वहन नहीं करते। "वासुदेव” शब्द श्री कृष्ण के पर्यायवाची रूप में ही रूढ़ और सीमित हो गया है। "वासूदेव" शब्द के प्रयोग से अकेले श्रीकृष्ण का ही परिचय प्राप्त होता है, किसी अन्य वासुदेव पुत्र का नहीं। इसके विपरीत जैन परंपरा में जब श्रीकृष्ण को वासुदेव कहा जाता है तो इसका प्रयोजन यह है कि वे एक वासुदेव थे। यहां “वासुदेव" का अर्थ वसुदेव-पुत्र कदापि नहीं हैं। वासुदेव तो एक श्रेणी या वर्ग है । इस दृष्टि से वासुदेव एकाधिक हों- इसमें कोई अस्वाभाविकता प्रतीत नहीं होती। नियति का काल चक्र जैन परंपरा में कालचक्र की एक समग्र व्यवस्था है। काल अपने प्रवाह के साथ-साथ सदा परिवर्तनशील रहता है, । कभी धार्मिक प्रवृत्ति एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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