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________________ २५४ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य पोषित सिद्धांत का कथन पूर्व में ही हो जाता है और सिद्धांत के तात्त्विक एवं स्पष्ट विवेचना के लिए एक छोटी-मोटी कथा भी कह दी जाती है। इस क्रम में कथा की स्वतंत्रता का निर्वाह नहीं हो पाता। इधर जैन कथा ही प्रमुख स्थान ग्रहण कर लेती है। अतः निष्कर्षतः ही किसी नैतिक सिद्धांत की पुष्टि हो गयी हो-ऐसा प्रतिभासित भर कर दिया गया है । इस प्रकार अप्रतिबद्ध रूप में जैन कथाएं जन साधारण के साथ स्वस्थ मनोरंजन कराने में भी समर्थ रही हैं। कथाकार की सफलता इस अप्रतिबद्धता के कारण एक सुपरिणाम और भी बन गया है जो बड़ा ही महत्वपूर्ण है। अपनी इस स्वच्छंदता के कारण कथाकार प्रत्येक प्रकार की मानसिता को ग्रहण करने में सफल रहा है, जीवन की दशाएं और भावनात्मक परिस्थितियों को कथाओं में अपनापन मिला है। फलत: कथा साहित्य का दायरा फैलकर बड़ा व्यापक हो गया और वह जीवन के अंतरिक्ष को स्पर्श करने लगा। जैन कथा साहित्य, जीवन और समाज का दर्पण बन गया है। अपनी इस व्यापक-परता के कारण जैन कथा साहित्य सर्व सामान्य की रुचि का विषय बन गया। यही तो इस कथा साहित्य की प्रक्रिया है। मनोरंजन के लक्ष्य से जन-मन को आकर्षित कर बड़े ही सहज और सरस ढंग से किसी न किसी तात्त्विक या दार्शनिक सिद्धांत को सुगम बना कर इस में प्रस्तुत कर दिया जाता है। कथा का आश्रय पाकर यह सम्प्रेषण सुगम और प्रभावपूर्ण हो जाता है । इनकी लोकप्रियता जैन कथाएं लोकप्रियता की कसौटी पर उच्चतम रीति से खरी उतरी हैं। न केवल सारे राष्ट्र की रुचि इस ओर जागृत हुयी है, अपितु अंतर्राष्ट्रीय रुचि भी इस कथा साहित्य के प्रति विकसित हई है। योरोप के अनेक प्राच्यविदों ने जैन कथा साहित्य के प्रति आतंरिक आकर्षण व्यक्त करते हए गहन गवेषणा का कार्य किया है। ऐसे विद्वानों में टाने, हर्टल, बलर, ल्यमेन, तेस्सितोरी, जेकोबी आदि के नाम सम्मान के साथ लिए जाते हैं। यह भारतीय जैन साहित्य राष्ट्रीय सीमा लांघ कर विदेशों तक भी पहुंच गया है। इन तथ्यों से इस मान्यता की पुष्टि हो जाती है कि जैन कथाएं जहां एक ओर प्रबल जन रुचि से युक्त है, वहीं दूसरी और उनमें जैन-धार्मिकता का संश्लेषण प्रगाढ़ता के साथ नहीं है। उनका अपना स्वतंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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