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तुलनात्मक निष्कर्ष, तथ्य एवं उपसंहार
२५३ वे कल्पना प्रसूत हों, जैन कथा साहित्य की एक शाश्वत विशेषता यह रही है कि वे विशुद्ध भारतीय धरातल पर अवस्थित हैं। उस पर भारतीय संस्कृति का आच्छादन रहा है तथा उसके द्वारा प्रतिपादित आदर्श सदा भारतीयता की गरिमा से संपन्न रहा है। जैन कथाकारों का तंत्र
जैन कथाकर अपने कथ्य के विषय में सदा मुक्त और स्वाधीन रहा है। उसके मानस में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं होता। इस दृष्टि से बौद्ध कथाओं और जैन कथाओं में एक अंतर अत्यंत स्पष्ट रूप में उद्घाटित हो जाता है। बौद्ध कथाओं को केवल साधन का रूप ही दिया गया है ; जिनके माध्यम से धार्मिक सिद्धांतों का विवेचन ही उनका परम लक्ष्य होता है। यह विवेचन ही उनका प्रमुख रहा है और कथा गौण ही गयी है। जैन कथाओं में कथा को प्रमुख, साध्य का स्वरूप मिला है। कथाकारों के लिए कथा का वस्तुपरक स्थान रहा है। वह तो अपने पात्रों, घात-प्रतिघातादि परिस्थितियों में रमकर कहानी कहता चलता है। इस दौरान उसका चित्त कथानक के बाहर किसी ऐसे तथ्य के पीछे नहीं भटकता है जिसको अप्रत्यक्ष रूप में प्रकट करने मात्र के लिए कहानी कहने का बहाना भर किया गया हो । कथा-कथन ही उसका लक्ष्य है जो किसी सिद्धांत के प्रतिपादन हेतु प्रतिबद्ध नहीं है। यही कारण है कि कहानी में किसी अन्य उद्देश्य की गंध न पाकर उसके प्रति पाठक भी समग्रता के साथ रुचिशील हो उठता है। कथा स्वरूप का निर्वाह भी इसी विशेषता के कारण भली-भांति सम्भव हो सका है।
जैन कथाएं होने से, जैनत्व का रंग उन पर न चढे तो साधारण अन्य कहानी न होकर इन्हें जैन कथाओं की संज्ञा क्यों कर दी जा सकती थी? इन पर जैन दर्शन का हल्का सा पुट रहता अवश्य है किंतु उल्लेखनीय यह है कि वह पुट न तो इतना गाढ़ा चढ़ाया जाता है कि इस में निरे धर्म प्रचार का स्वरूप बढ़कर कथा स्वरूप को समाप्त कर दे । प्रायः किया यह गया है कि कहानी तो अपनी समस्त स्वच्छंदता के साथ चलती रही है अथ से इति तक, केवल संबंधित जैन दर्शन का संकेत मात्र उनमें भर दिया गया है। इन्हें कथा के माध्यम से पुण्य के सुफल और दुष्कर्म के दुष्परिणामों को स्पष्ट कर दिया गया है। इससे यह इंगित स्पष्ट मिल जाता है कि प्रस्तुत कथा जैन धर्म या जैन दर्शन के अमुक सिद्धांत के दृष्टान्त रूप में कथित है । दृष्टांत और इन जैन कथाओं में अंतर यह आभासित हो जाता है कि दृष्टांत में
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