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________________ २४६ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य राजीमती की फटकार से प्रबद्ध बना हुआ रथनेमि श्रमण बनकर उसी गुफा में पहले से ही ध्यान मुद्रा में अवस्थित था। बिजली की चमक में निर्वस्त्र राजीमती को निहार कर रथनेमि विचलित हो गया। राजीमती की भी दृष्टि रथनेमि पर पड़ी। वह अपने अंगों का गोपन कर बैठ गई। कामविह्वल रथनेमि ने मधुर स्वर से कहा-हे सुरूपा ! मैं तुझे प्रारम्भ से ही चाहता रहा हूं। तू मुझे स्वीकार कर। मैं तेरे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता । तू मेरी मनोकामना पूर्ण कर, फिर समय आने पर हम दोनों पुनः संयम ग्रहण कर लेंगे। राजीमती ने देखा कि रथनेमि का मनोबल ध्वस्त हो गया है। वे विह्वल होकर संयम से च्यूत होना चाहते हैं । उसने कहा-तुम चाहे कितने भी सुन्दर हो मैं किन्तु तुम्हारी इच्छा नहीं करती। अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प मर जाना पसंद करते हैं किंतु वमन किये हुए विष का पान नहीं करते। फिर तुम इस प्रकार की इच्छा क्यों कर रहे हो ? जैसे अंकुश से हाथी वश में हो जाता है, वैसे ही रथनेमि का मन संयम में सुस्थिर हो गया। यह कथा प्रसंग नारी की महत्ता को उजागर करता है। नारी सदा मानव की पथ-प्रदशिका रही है। जब मानव पथ से विचलित हुआ तब नारी ने उसका सच्चा पथ प्रदर्शित किया। जैसे-ब्राह्मी और सुन्दरी ने बाहुबलि को अहंकार के गज से उतरने की प्रेरणा दी। ___इस तरह अरिष्टनेमि के युग के अनेक श्रमणों का निरूपण इस अध्याय में हुआ है। इसके पश्चात् पुरुषादानीय भगवान् पार्श्व के तीर्थ में अंगति, सुप्रतिष्ठित, पूर्णभद्र आदि की बहुत ही संक्षेप में कथाएं हैं। जितशत्रु और सुबुद्धि प्रधान की कथा भी उसमें दी गई है। इस कथा में दुर्गन्धयुक्त जल को विशुद्ध बनाने की पद्धति पर चिंतन किया गया है । आधुनिक युग की फिल्टर पद्धति भी उस युग में प्रचलित थी । विश्व में कोई भी पदार्थ एकांत रूप से न पूर्ण शुभ है और न पूर्ण रूप से अशुभ ही है। प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ में परिवर्तित हो जाता है तथा प्रत्येक पदार्थ अशुभ से शभ में परिवर्तित हो जाता है। अतः अंतर्मानस में किसी के प्रति घृणा करना अनुचित है यह बात प्रस्तुत कथानक में स्पष्ट की गई है। यहां पर एक बात स्मरण रखने योग्य है-भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर इन दोनों तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष बावीस तीर्थ करों के श्रमण चातुर्याम महाव्रत के पालक थे। पर बावीस तीर्थंकरों के श्रमणो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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