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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
खैर करी पिया थांने ओलुम्बो, कांई देऊ बारम्बार । आठ भवांरी प्रीत बंधाणी, नव में तोड्यो तार । इम । ६ इम कही ने कांकण डोरड़ा, नोयो नवसर हार । सखी सहेलियां वरजत सारी, जाय चढ़ी गिरनार । इम. । ७ आप तो नेमजी पेली पधार्या, मुझे न लीधी लार। आप पेली मूं जाऊं मुगत में, जाणजो थांरी नार । इम.८ । चौपन्न दिनों रे पेली यों सती, पोहती मोक्ष मझार । नेम राजुल या सरीखी जोड़ी, थोड़ी इण संसार । इम । ६ पूज्य अमर सिंघजी रो सिंघाड़ो, दीपत ज्यू दिनकार । पूज्य पूनम महाराज प्रसादे, भणे नेम अणगार। इम. । १० समत उगणीसे साल पने, भाद्रव पंच शनिवार । गाम रेडेडे कियो चौमासो, घणो हुवो उपगार । इम. । ११38
रथनेमि एवं राजीमती
रथनेमि भगवान् अरिष्टनेमि के लघुभ्राता थे । रथनेमि का आकर्षण राजीमती की ओर प्रारंभ से ही रहा । जब भगवान् अरिष्टनेमि ने राजीमती को बिना विवाह किये ही छोड़ दिया तो रथनेमि उसके साथ विवाह करने के लिए लालायित हो उठा और अपनी भावना राजीमती के सामने व्यक्त करने लगा। राजीमती ने वमन कर उसे पीने के लिए कहा। रथनेमि ने क्रद्ध होकर कहा-क्या तू मेरा अपमान करती है ? राजीमती ने कहा-भाई के द्वारा वमन किये हुए को ग्रहण करना क्या तुम्हारे लिए उपयुक्त है ? रथनेमि का विवेक जागत हो उठा । यहां एक प्रश्न चिंतनीय है। वह यह हैअहंत अरिष्टनेमि के दीक्षा लेने के पश्चात् रथनेमि ने भी दीक्षा ग्रहण की। आवश्यक नियुक्ति, वृत्ति और आचार्य हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित में लिखा है-रथनेमि चार सौ वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, एक वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे और पांच सौ वर्ष केवली पर्याय में । उनका नौ सौ वर्ष का आयुष्य हुआ। इसी तरह कुमारावस्था, छद्मस्थ अवस्था और केवली अवस्था का विभाग करके राजीमती ने भी उतने ही आयुष्य का उपभोग किया।
३८. नेमिनाथ और राजुल-कविवर नेमिचंद जी महाराज ।
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