________________
२३४
जैन-परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य
निवासी जैन धर्मावलंबी था, पिता कनोजीलाल थे। अपने मित्र गोपालदास के कहने से उन्होंने इस कृति का निर्माण किया था।
प्रस्तुत ग्रंथ का आधार जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण है। इसकी रचना कवि के कथनानुसार विक्रम संवत १८८० (सन १८२३) है। ३८६ छंदों में विरचित इस ग्रंथ के प्रारंभ में जिनेश्वर व गणेश की वंदना है । द्वारिका नगरी के शक्ति संपन्न राजा वासुदेव श्रीकृष्ण का वर्णन, नेमिनाथ के माता-पिता का वर्णन, ने मिनाथ तथा कृष्ण की बाल लीलाएं, नेमि का सौंदर्य और वीरत्व एवं वैराग्य वर्णन, कैवल्य प्राप्ति तथा मोक्ष के वर्णन हैं । कृति की कथावस्तु परंपरागत है । खंडकाव्य की दृष्टि से यह उत्कृष्ट रचना है। इसकी भाषा सरल हिंदी जो सामान्य पाठक समझ सकते हैं । दोहा, सोरठा, चौपाई, अडिल्ल तथा भुजंगप्रयात छंदों का प्रयोग करते हुए कवि ने शांत, करुण, विप्रलंभ शृंगार आदि रसों का अच्छा उपयोग अपनी इस कृति में किया है। यहां पर रसों के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंवीररस का उदाहरण
नाग साधि करके मुरलिधर। सहस पत्र ल्याये इंदीवर । कंस नास किन्हों छिनमांहि । उग्रसेन कहं राज्य करांहि । जीत लीन शिशुपाल नरेस । जरासंध जीतो चक्रस ।।
इत्यादिक बहु कारण करे । सकल अनीति मार्ग तिन हरे ।26 भारत भूमि के संपूर्ण राजाओं में श्रेष्ठ व पूजनीय वीर कृष्ण कंस का वध कर पिता उग्रसेन को राज्यासीन करते हैं। शिशुपाल व जरासंध जैसे शक्तिसंपन्न वीरों पर विजय प्राप्त करते हैं। इस प्रकार उन्होंने अनेकानेक पराक्रमपूर्ण कार्य किए हैं। ऐसे कार्यों से श्रीकृष्ण ने अनीति के स्थान पर नीति की स्थापना की है।
इस प्रकार के श्रेष्ठ कृष्ण किस तरह से नपतिगण व देवगणों के द्वारा सेवित थे और ये ही लोग उनकी आज्ञा-पालन कैसे करते थे इसे लेकर इस प्रसंग का कवि ने मार्मिक विवेचन किया है। यथा
२४. नेमिचंद्रिका की एक हस्तलिखित प्रति, जैन मंदिर बड़ा तेरापंथियों का, जयपुर
में उपलब्ध है। २५. एक सहस अरु आठ सत वरष असीती और।
याहि संवत मौ करी पूरण छह गुण गौर ॥ -नेमिचंद्रिका । २६. नेमिचद्रिका-छंद १९-२० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org