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________________ २२८ जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य अरिष्टनेमि जब बड़े हुए तो उनका विवाह राजा उग्रसेन की कन्या राजीमती के साथ निश्चित हआ। ज्योंही सजधज के बारात पहुंचने लगी त्योंही विवाहोत्सव में मारे जानेवाले पशुओं का करुण क्रंदन सुनकर नेमिकुमार का दिल दहल उठा । वे बिना ब्याह किए ही संसार मार्ग को छोड़ साधना में लग गए। परिजनों की लाख कोशिशों के बाद भी वे विचलित नहीं हुए। तपाराधना के पश्चात् उन्हें केवल की प्राप्ति हुई। वे तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हए। उनके साथ ही राजल (राजीमति) भी उन्हीं के मार्गानुसार साधना पथ को स्वीकारती है। उपरोक्त कथावस्तु ५७ फागु छंदों में निबद्ध है ।' कृति की भाषा राजस्थानी प्रभावित आदिकालीन हिंदी है। यह गेय काव्य है। नेमिनाथ की वंदना से काव्य का प्रारंभ होता है। काव्य में द्वारिका नगर तथा कृष्ण का शौर्य वर्णन श्रेष्ठ बन पड़ा है । द्वारिका तथा कृष्ण वर्णन के पश्चात् कवि नेमि-राजुल के परंपरागत कथानक को प्रस्तुत करता है और अपनी प्रतिभा का परिचय देता है। अंत में वह इस कृति को संदररूप से समाप्त करता है। फागु छंद में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में २३ मात्राएं तथा १२, ११ पर यति होती है। (३) बलिभद्र चौपाई इस कृति के रचयिता कवि यशोधर थे । काष्ठासंघ के जैन गुरु विजयसेन की वाणो से प्रभावित होकर जैन दीक्षा स्वीकार कर साहित्य क्षेत्र में आगे बढ़े । इनका समय संवत् १५२० से १५६० का बताया गया है ।10 १८६ पद्यों में रचित प्रस्तुत कृति की रचना संवत् १५८५ (ई० सन् १५२८) में हुई है जिसका उल्लेख कवि ने निम्न रूप से किया है संवत् पनर पच्यासीर, स्कन्ध नगर माझारि। भवणि अजित जिनवर वणी, एगुणा गाया सारि ।। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि प्रस्तुत कृति में कृष्ण के बड़े भ्राता बलराम का चरित वर्णन है। ६. हिंदी की आदि और मध्यकालीन फागु कृतियां : संपादक डा० गोविंद रजनीश, १०. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : पृ० ८५, डा० कस्तूरचंद कासलीवाल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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