________________
हिन्दी जैन श्रीकृष्ण मुक्तक साहित्य
२२५
मिटत नहीं मेरे से या तो होणहार सोइ होइ । कहां कृष्ण कहां जरद कुंवर जी, कहां लोहा के तीर ।। मृग के धोखे वन में मार्यो बलभद्र भरण गये नीर ।।
पं० महासेन की १६ वीं शताब्दी की इस रचना में इस तथ्य को प्रतिपादित करने का लक्ष्य रहा है कि पूर्वनिश्चित क्रमानुसार जो कुछ घटित होने वाला है, वह घटित होता ही है। कोई अपने सामर्थ्य के प्रयोग से उसे वह न घटे ऐसा नहीं बना सकते । होनहार होकर ही रहता है। इस तथ्य की पुष्टि में, श्रीकृष्ण के जीवन का यह प्रसंग प्रयुक्त करते हुए कहा गया है कि "देखो, कहां तो श्रीकृष्ण का वन (अर्थात कौशांबी वन) में पहुंचना और कहां जरत्कुमार का भी उसी वन में आखेट के लिए जाना और श्रीकृष्ण को उसी समय प्यास लगना तथा बलदेव का जल लाने को जाना । शयन किए हुए श्रीकृष्ण को देखकर जराकुमार को मृग का धोखा होना" आदि सारी परिस्थितियां इसी नियति द्वारा निर्मित हो गयी। क्यों कि श्रीकृष्ण का मरण एक "अटल होनी" थी और अंततः जरत्कुमार के बाण से श्रीकृष्ण का देहांत हो ही जाता है।
___ कवि ने अपना मुख्य लक्ष्य होनहार के अवश्यंभावी के रूप में घटित होने का तथ्य प्रस्तुत करने का ही रखा है। श्रीकृष्ण जीवन के अनेक प्रसंग मुक्तक पदों में आए हैं और सहायक रूप में चित्रण पाकर भी वे कृष्ण जीवन का आंशिक परिचय देने में समर्थ रहे हैं।
जैन साहित्य के इतिहास में मुक्तक पदों में काव्यरचना की भी एक दीर्घ परंपरा रही है। इस परंपरा के प्रमुख रचनाकारों का विवरण इस प्रकार दिया जा रहा हैबनारसी दास
संवत् १६४३ (जन्म) द्यानतराय
" १७३३ (जन्म) भैया भगवतीदास
,, १७३१-५५ (रचनाकाल) बुध जन
, १८३०-६५ (रचनाकाल), भधरदास
१८वीं शताब्दी पंडित महासेन
१६वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध
१. पंडित महासेन-श्रीकृष्ण चरित-स्फुट काव्य १९वीं शताब्दी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org