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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
सकता, परन्तु ईश्वर अवश्य मनुष्य बन सकता है और धर्म की पुनर्स्थापना करता है।
वासुदेव के रूप में श्रीकृष्ण को मान्य समझने वाली जैन परम्परा उन्हें अवतार नहीं मानती। जैन परम्परा अवतारवाद को ही स्वीकार नहीं करती। यह परम्परा उत्तारवाद का समर्थक व अवतारवाद की विरोधक रही है। आध्यात्मिक क्षेत्र के शिरोमणी तीर्थकर भी अवतार नहीं माने जाते । जैन दर्शन में तो मनुष्य ही सर्वोपरि महत्ता संपन्न है । ईश्वर की परिकल्पना जैन दर्शन में कभी नहीं रही है। मनुष्य ही सन्मार्गानुसरण से उत्तरोत्तर उन्नत होता हुआ चरमस्थिति का लाभ कर सकता है। जैन धर्म उत्तारवाद का विरोधक नहीं है । वैदिक परम्परा में ईश्वर मानवदेह धारण कर ऊपर से नीचे की ओर आता है, निवृत्ति से प्रवृत्ति की ओर बढ़ता है, निर्विकार से विकार की ओर अग्रसर होता है। इसके विपरीत जैन परम्परा में मनुष्य नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता है, प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर, विकार से निर्विकार की ओर अग्रसर होता है। यह भी मेरे शोध अध्ययन के अंतर्गत आया है।
इस दृष्टि से जैनादर्शों को श्रीकृष्ण चरित्र में भिन्न-भिन्न भाषाओं के साहित्य में किस प्रकार अपनाया गया है यह भी एक खोज की दिशा हो सकती है । मेरे सामने जैन श्रीकृष्ण साहित्य की अध्येतव्य सामग्री प्राकृत आगम, प्राकृत आगमेतर जैन श्रीकृष्ण साहित्य और संस्कृत तथा अपभ्रश जैन श्रीकृष्ण साहित्य के साथ-साथ हिंदी जैन श्रीकृष्ण साहित्य रहा है। अतः मैंने अपने अनुशीलन की सुविधा की दृष्टि से इस शोधाध्ययन के इस विषयप्रवेश के अतिरिक्त कुल नौ अध्यायों में इस शोध सामग्री को विभाजित किया है। इनके समग्र अध्ययन से यह बिखरा हुआ जैन श्रीकृष्ण साहित्य एक उपयोगी दिशा निर्देश कर श्रीकृष्ण के अध्ययन में एक नया मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
इसीलिए इसी गवेषणा के सूत्र को पकड़कर मैं अपने शोधाध्यन में प्रवृत्त हुआ। एक जैन मुनि होने के नाते भी इस जैन श्रीकृष्ण साहित्य से जैनादर्शों का अध्ययन करने में मेरी स्वाभाविक रुचि भी रही थी जिसने मुझे इसके अनुशीलन की प्रेरणा दी । जैसा में पूर्व में कह चुका हं मैंने अपने शोध का आरम्भ इसकी शोधानुकूलता के कारण सहित इस अध्याय में बताकर द्वितीय अध्याय में प्राकृत जैन आगम श्रीकृष्ण साहित्य का अनुशीलन प्रस्तुत किया है।
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