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________________ हिन्दो जैन श्रीकृष्ण रास, पुराण-साहित्य और अन्य २१६ -दुर्योधन के हठ के कारण भयानक विध्वंसक परिणाम स्वरूप महाभारत युद्ध । -श्रीकृष्ण द्वारा हस्तिनापुर के राज्यासन पर पांडवों का अभिषेक । —द्रौपदी हरण और उद्धार । -पांडवों द्वारा भगवान नेमिनाथ के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण। प्रस्तुत प्रबंध को कथावस्तु प्रायः महाभारत के कथानक से भी प्रभावित है और कवि ने उसे जैनादर्शों एवं मान्यताओं के सांचे में ढालने का भी सफल प्रयास किया है, इसमें कोई संशय नहीं किया जा सकता। समस्त कथानक में कौरव-पांडव विरोध और युद्ध ही प्रमुखता लिए हुए है। कवि ने कौरवों और, पांडवों के संघर्ष को क्रमशः सत और असत् के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया और अंततः सत की विजय से पांडवों को प्रतिष्ठित. किया है। कथा के क्रमिक विकास और विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि पांडवों की विजय ही इस कृति के कथानक का लक्ष्य अथवा फल है जिसके भोक्ता पांडवगण हैं। कौरव और पांडव राजकूमार आरंभ में अखाड़े में अपने-अपने बल और शौर्य का प्रदर्शन करते हैं और इस प्रसंग में इन दोनों पक्षों का मनोमालिन्य और वैमनस्य प्रकट होने लगता है। यह प्रारंभ अवस्था है । पांडवगण इसके पश्चात् निरंतर अपनी शक्ति में अभिवृद्धि करते रहते हैं। मत्स्यवेध में सफल रहकर अर्जन स्वयंवर में द्रौपदी को प्राप्त कर लेता है, यहां तक प्रयत्न की अवस्था मानी जा सकती है । इसके पश्चात् पांडवों के अपकर्ष का काल है। जुए में पराजय और वनवासादि के प्रसंग इसके मूल में हैं। उनका अपना राज्य भी उनके अधिकार से निकल जाता है। ये परिस्थितियां फल प्राप्ति के मार्ग में बाधा के स्वरूप आती हैं । उनकी असमर्थता और साधनहोनता के कारण पाठकों को यह आशा नहीं रह पाती कि इनकी विजय हो सकेगी। किंतु, पांडव सदा सक्रिय और सचेष्ट रहते हैं । यह प्राप्त्याशा की अवस्था है । महाभारत युद्ध आरंभ होता है। पांडवगण कौरव पक्ष के प्रसिद्ध योद्धाओं को समाप्त करते चले जाते हैं। उनका पराक्रम उत्कर्ष प्राप्त करता चलता है। यह स्थिति नियताप्ति की है। यहां पर फल की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। कौरव दल समूल नष्ट हो जाता है । अन्त में श्रीकृष्ण पांडवों को हस्तिनापुर के राज्यासन पर आसीन करते हैं। यहीं पर फत की प्रत्यक्ष प्राप्ति हो जाती है और यह फलागम की अवस्था है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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