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जैन - परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
थी । भगवान के प्रथम उपदेश ने ही उन्हें दीक्षार्थ तत्पर कर दिया । कष्ट सहन करने की क्षमता भी उनमें अपार थी । मुंडित शीष पर अंगारों का ढेर रखा गया पर उन्होंने उफ तक नहीं किया । उनकी ध्यान - लीनता में क्षणभर के लिए भी व्यवधान नहीं आया । इस भयंकर उपसर्ग के कर्त्ता सोमिल के प्रति भी कोई विकार उनके मन को स्पर्श न कर सका । अपने अनिष्टकारी के प्रति भी उपेक्षा, क्षमा और अक्रोध की प्रवृत्ति का इससे बढ़कर अन्य कोई वृत्तांत कदाचित् ही कहीं मिल सके ।
मुनि गजसुकुमाल की चारित्रिक विशेषताओं का तो यथासंभव व्यापक चित्र प्रस्तुत किया ही गया है । अन्य कतिपय गौण पात्रों के चरित्र पर भी प्रकाश डाला गया है । देवको का ममतापूर्ण वात्सल्य भाव और उसका मातृत्व भी उभर कर सामने आया है, तो श्रीकृष्ण का पराक्रम और शौर्य भी । सोमिल ब्राह्मण के द्वेष और प्रतिशोध, स्वार्थ और क्रोध का भी सुंदर चित्रण हुआ है ।
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रसयोजना :
" गजसुकुमाल रास" खंड काव्य वैराग्य प्रधान रचना है अतः इसमें शांत रस की प्रधानता तो स्वाभाविक ही है । आरंभ में तीर्थकर भगवान द्वारका में पदार्पण होता है । शिष्यगण ( मुनिजन ) नगर में भिक्षार्थ विचरण करते हैं । राजपरिवार और नगरवासी भगवान की पावनवाणी का श्रवण करते है। मां देवकी की पुत्रप्राप्ति की कामना के संबंध में श्रीकृष्ण तपस्या करते हैं । भविष्यवाणी होती है कि मां देवकी को जिस पुत्र की प्राप्ति होगी वह युवावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर लेगा । इन सारी परिस्थितियों के कारण शांत रस की सृष्टि हो जाती है । इसे जैन साहित्य की दृष्टि से वीतराग रस कहते हैं ।
गजसुकुमाल का विरक्ति प्रधान जीवन होने के कारण ग्रंथ में आद्योपात शांत रस की परांत पहले ही दिन वे साधनारत हो जाते हैं पोषण में बड़ा सहायक रहा है।
चरित ही प्रमुख वर्ण्य विषय झड़ी लगी हुई है । दीक्षोयह प्रसंग भी शांत रस के
जिन स्थलों पर देवकी के मातृत्व-भावना के प्रसंग आए हैं, वहां वात्सल्य रस की सृष्टि हुई है । भिक्षा के प्रयोजन से उसके यहां आए युवा मुनियों को देखकर उसके मन में वात्सल्य और स्नेह का ज्वार ही
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