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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण-साहित्य ___मुनि गजसुकुमाल ने भगवान के समक्ष केवलज्ञान-मार्ग जानने की उत्कट जिज्ञासा प्रकट की और भगवान ने तितिक्षा-धारणा का मार्ग बताया। किशोर मुनि गजसूकुमाल श्मशानभूमि में ध्यामग्न बैठे थे कि सोमिल ब्राह्मण की दृष्टि उन पर पड़ गयी। वह क्रोधित हो उठा कि इसे वैराग्य ही ग्रहण करना था तो सोमा का जीवन इसने क्यों नष्ट किया। क्रोधाभिमुख सोमिल ने मुनि के मुंडित शीष पर मिट्टी की पाल बनाकर उसमें चिता के दहकते अंगारे भर दिए। मुनि गजसुकुमाल ने इस घोर परिषह को असीम सहिष्णुता के साथ सह लिया। वे विचारने लगे कि, मैं नहीं किंतु, पार्थिव शरीर ही तो जल रहा है। मैं तो आत्मा हूं और आत्मा दहन के परे है। अट साधना में रत मुनि गजसुकुमाल को मोक्ष की प्राप्ति हो गयी। दुष्ट सोमिल ने भी ज्यों ही श्रीकृष्ण को देखा, भयाधिक्य से उसका प्राणांत ही हो गया।
“गजसुकुमाल रास" खण्डकाव्य का कथानक अत्यंत सुगठित है। सारे प्रबंध में योग ३४ छंदों का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार यह खण्डकाव्य तीव्र प्रवाहमय और प्रभावशाली है। शैथिल्य नाम-मात्र को भी दृष्टिगत नहीं होता और अनर्गल विक्तार के दोष से भी सर्वथा मुक्त है।
कथानक की समस्त कार्य अवस्थाओं की दृष्टि से भी यह एक सुसंबद्ध घटनापुंज एवं व्यवस्थित कथा-विकास वाली रचना है । नायक गजसुकुमाल द्वारा मोक्ष लाभ इस खण्डकाव्य का उद्देश्य या फल है । नायक के जन्म से पूर्व की यह घोषणा कि वह युवावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर विरक्त हो जायेगा-कथा-विकास की प्रारंभ अवस्था है। कवि ने इंद्रवत् पूज्य द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के बलविक्रम की यथोचित गाथा का गान किया है । तत्पश्चात् भगवान नेमिनाथ का द्वारका आगमन और देवकी की पुत्र-प्राप्ति की कामना वर्णित है। तदनंतर कवि ने बालक गजसुकुमाल की सांसारिक विषयों के प्रति दढ़ उदासीनता चित्रित की है। यह चिंतनशील बालक भगवान के तत्त्वपूर्ण उपदेशों के प्रभावस्वरूप विरक्त हो जाता है। यह कथानक की प्रयत्नावस्था है। गजसुकुमाल को संसार-विमुख पाकर सभी स्वजन-परिजन चिंतित हो उठते हैं। उसे जगदुन्मुख करने का प्रयत्न किया जाता है। स्वयं श्रीकृष्ण सोमिल-पुत्री सोमा से उसका विवाह करवा देते हैं। सारी परिस्थितियां फलप्राप्ति के मार्ग में नायक के लिए बाधास्वरूप हैं। कथानक-विकास की ततीय अवस्था प्राप्त्याशा भी सर्वथा ओझल नहीं हो जाती । कथा-विकास के संयोजन की इस विशेषता के कारण कथानक इस
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