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हिन्दी जैन श्रीकृष्ण रास, पुराण-साहित्य और अन्य
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काव्य का फल यह नहीं है । फलप्राप्ति तो नायक द्वारा सहसा ही एक आकस्मिक घटना के रूप में हो गयी है । उसके लिए प्रयत्न क्रम कथानक में दिखाई नहीं देता । न ही प्रयत्नों को निष्फल करने के उद्देश्य से बाधाएं हैं और न बाधाओं को समाप्त करने को नायक की चेष्टाएं ही । घात-प्रतिघात की यह स्थिति इस काव्य में फलप्राप्ति के प्रयत्नक्रम के अभाव में ही नहीं आ पायी है । इस दृष्टि से प्रस्तुत काव्य अवश्य ही सदोष है ।
चरित्र-चित्रण :
I
प्रद्युम्नकुमार प्रस्तुत चरित काव्य का नायक है। राजवंशोत्पन्न प्रद्युम्नकुमार इस प्रकार अभिजात वर्ग के हैं । अपने पिता श्रीकृष्ण की भांति वे वीर और पराक्रमी भी हैं । जैन परंपरा में वे पुण्यपुरुष कामदेव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हैं । प्रस्तुत काव्य में नायक प्रद्युम्नकुमार के चरित्र का जो रूप अवस्थित हुआ है, उसके अनुसार धैर्य, साहस, शौर्य, शक्तिमत्ता, सौंदर्य शोभा और उदात्तता के गुण उनकी चारित्रिक विशेषताएं हैं । शौर्य एवं प्रताप उनका वंशानुगत ही नहीं जन्मजात गुण भी है । कवि ने इस बात को उल्लेखित भी किया है । विशेषतः प्रद्युम्न चरित के विवेचन की व्रज भाषा बहुत सुंदर रूप से प्रयुक्त है - यथा
सीहिणी सीहू जणे जो बालु, हस्तीजूह तणो णे कालु । जूह छाडि गए वण ढ़ाऊ, ता कह कोण कहे मरिवाउ || १६६ ॥
अर्थात् सिंहनी सिंह शावक को जन्म देती है । वही हाथियों के झुण्ड के लिए काल के समान है । यदि अपने समूह को छोड़कर सिंह अकेला ही वन में निकल जाए तो उसे कौन ललकार सकता है । इस प्रकार की उक्तियों द्वारा प्रद्युम्नकुमार के साहस- निर्भीकता, एवं शक्ति को प्रकट किया गया है । वे युद्ध कौशल में अप्रतिम थे । श्रीकृष्ण के साथ प्रद्युम्न के युद्ध के पश्चात् नारद जी श्रीकृष्ण को उनसे परिचित कराते हुए कहते हैं
यह सु मयणु गुरुवो वरवीर, रण संग्राम सुहास धीर ।
या परिष को वर्ण, पणउ यह सो पूत रुक्मिणी तणउ ॥ 55
वीर प्रद्युम्न से युद्ध छेड़ना ठीक वैसा ही था जैसे आते हुए वज्र को
५५. यह बड़ा भारी वीर है तथा रणसंग्राम में धीर एवं साहसी है । इसके पौरुष का अधिक वर्णन कौन कर सकता है ? ऐसा यह वीर रुक्मिणी का पुत्र है ।
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