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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य पश्चात् असुर धूमकेतु शिशु प्रद्युम्नकुमार का अपहरण कर लेता है। विद्याधर राजा कालसंवर के यहीं यह शिशु पोषित होने लगता है । कालसंवर की रानी कनकमाला वात्सल्यभाव के साथ प्रद्युम्न को रखती है। १२ वर्ष की आयु का बालक प्रद्युम्न इसी परिवार में अपना जीवन व्यतीत करता है। वह अनेक विद्याओं और कलाओं में निष्णात हो जाता है।
किशोर प्रद्युम्न अत्यन्त सुंदर था। उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक और प्रभावशाली था और शस्त्र-संचालन में कुशल भी था। यह किशोर बड़ा पराक्रमी था। इस अवधि के पश्चात् वह द्वारका पहुंचता है और अपने माता-पिता से मिलता है। श्रीकृष्ण प्रद्युम्न का राज्याभिषेक कर देते हैं
और उसका विवाह भी करा देते हैं। सुदीर्घ सुखी जीवन व्यतीत करने के पश्चात भगवान नेमिनाथ के उपदेशों से प्रभावित होकर प्रद्यम्नकुमार कठोर तपश्चर्या द्वारा घातिक कर्मों का क्षय करके कैवल्य लाभ करते हैं और आयु के अंत में सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं। यही घटनाक्रम “प्रद्युम्नचरित' में अपनाया गया है।
प्रबंध काव्य की दृष्टि से उक्त कथानक सर्वथा सुगठित और सुसंबद्ध है। मूल कथा के अतिरिक्त कतिपय अवांतर कथाएं भी समाविष्ट हैं, यथारुक्मिणी-हरण, नारद की विदेह क्षेत्र की यात्रा, सिंहरथ-युद्ध, उदधि कुमार का अपहरण, मानकुमार का विवाह, सुभानुकुमार एवं शांबकुमार की चूत क्रीड़ा आदि । इन संक्षिप्त कथासूत्रों से प्रवाह में बाधा नहीं आयी है अपितु इससे विभिन्न कथा-प्रसंगों को सकारण बनाने और उन्हें परस्पर संबद्ध करने का सफल प्रयास हुआ है। इस प्रयास से काव्य और अधिक प्रभावशाली एवं मनोरंजक भी हो गया है और साथ ही ज्ञानवर्धक भी।
नायक द्वारा कैवल्य लाभ ही इस काव्य में भी कथानक का फल रहा है। किंतु, कथानक का शेषांश प्रद्युम्नकुमार के ऐसे चरित को वणित नहीं करता है जिसमें फल की सारी प्रक्रिया का सन्निवेश हो। अर्थात विभिन्न अवस्थाओं के निर्वाह की ओर कवि का ध्यान नहीं रहा है । उसका प्रतिपाद्य तो मात्र परंपरागत प्रद्युम्न कथा ही रह गयी है। नायक के लिए संघर्षपूर्ण परिस्थितियां भी बार-बार आयीं अवश्य हैं । ये परिस्थितियां फल प्राप्ति के मार्ग में व्यवधान स्वरूप नहीं हैं। न ही किसी एक प्रतिनायक से यह संघर्ष होता है। सीधा-सपाट कथानक मात्र यही उद्देश्य रखता है कि प्रद्युम्न कुमार के शौर्यपूर्ण जीवन की सुंदर झलक हमें मिल जाए किंतु कथा
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