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हिन्दी जैन श्रीकृष्ण रास, पुराण- साहित्य और अन्य
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उदात्त कल्पना और उमंग विकसित होते-होते उस समय चरम अवस्था पर पहुंच जाती है जब कि वरवेश में नेमिकुमार तोरण द्वार तक पहुंचते हैं । किंतु, इसी समय उसकी सारी आशाओं पर तुषारपात हो जाता है । नेमिकुमार तोरण से ही लौट जाते हैं। बाहर-भीतर से सजी संवारी राजकुमारी राजीमती का सारा शृंगार क्रंदन में परिणत हो जाता है । यह करुणापूर्ण प्रसंग हृदयद्रावक है । शृंगार के संयोग पक्ष का पटाक्षेप हो जाता है और विप्रलंभ का द्वार खुलता है । इस स्थल से राजुल द्वारा दीक्षा ग्रहण के प्रसंग तक यही वियोग शृंगार रस चलता है तथा अंत में वीतराग रस में उसकी परिणति हो जाती है ।
नेमकुमार के बालवर्णन में वात्सल्य रस की भी सुंदर झांकी मिलती है । इस प्रकार काव्याकृति में वात्सल्य, संयोग-वियोग, करुण और विशेष प्रकार से शांत रस अर्थात् वीतरागी रस का सुंदर निर्वाह हुआ है ।
भाषा छंद एवं अलंकार योजना :
प्रस्तुत काव्य प्रारंभिक हिंदी में रचित, अपने युग की एक अतिसुंदर कृति है | हिंदी का यह आरंभिक रूप था तथापि भाषा का जो सोष्ठव एवं प्रवाह दृष्टिगत होता है उससे कवि की भाषा का सामर्थ्य प्रतीत होता है । भाषा के जिस रूप का व्यवहार प्रस्तुत रचना में मिलता है, वह तत्कालीन लोक प्रचलित जनसामान्य की भाषा थी । कदाचित् यह भी एक प्रमुख कारण था कि अपने युग में रासक काव्य के रूप में उक्त काव्य को अपार जनप्रियता प्राप्त हुई ।
छंद की दृष्टि से प्रस्तुत कृति में आद्योपांत एक ही पद्धति का निर्वाह दृष्टिगत होता है । समस्त रचना में धूवड़ छंद का प्रयोग हुआ है और छंदांत में एक-एक द्विपदी मिलती है ।
प्रस्तुत खंड-काव्य में अलंकारों का बड़ा ही सहज और स्वाभाविक प्रयोग हुआ है । अलंकार - प्रयोग से काव्य का अपना मौलिक सौंदर्यं अभिवर्धित ही हुआ है । अलंकार स्वाभाविकता पूर्वक आ गये हैं, अनावश्यक व अवांछित अवस्था में वे नहीं दिखायी देते हैं । कृति में अनेक स्थलों पर उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग द्रष्टव्य है ।
(४) प्रद्युम्नरास:
प्रस्तुत कृति के लेखक ब्रह्म रायमल हैं । १७वीं शती के विद्वान संतों में इनका उल्लेखनीय स्थान है । ये मुनि अनंतकीर्ति के शिष्य थे। राजस्थान
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