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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य गवेषण और शोध की अपेक्षा रखती है और यह अपेक्षा भी प्रस्तुत शोध कार्य के मूल में एक सबल प्रेरणा रही है।
वस्तुतः जैन साहित्य में श्रीकृष्ण के चरितगत वैशिष्ट्य और उनका वैदिक श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं के साथ आपेक्षिक अध्ययन गवेषणा का एक व्यापक पट प्रस्तत कर देता है। इन शोधों के परिणाम-स्वरूप श्रीकृष्ण चरित के विभिन्न आयाम तो प्रकाशित हुए ही हैं, साथ ही जैन धर्म के अनेक मूल सिद्धांतों को भी पुनर्बल प्राप्त हुआ है जो इन विशेषताओं के मूल में रहे हैं और जिनकी अनुरूपता में श्रीकृष्ण चरित के इस नव्य रूप को आकार प्राप्त हआ है। निःसंदेह जैन साहित्य के श्रीकृष्ण जैन मान्यताओं के धरातल पर अवस्थित परम शक्तिशाली महापुरुष हैं और वैदिक मान्यताओं से भिन्न स्वरूप के वाहक हैं।
वैदिक परंपरा में श्रीकृष्ण को "वासुदेव" कहा गया है । जैन परंपरा में भी वे वासुदेव हैं। किन्तु, श्रीकृष्ण के साथ संयुक्त किए गए इस अपर नाम का प्रयोजन दोनों मान्यताओं में भिन्न-भिन्न रहा है । वसुदेव के पुत्र होने के नाते श्रीकृष्ण वैदिक परम्परा में वासुदेव कहलाते हैं। इसके विपरीत जैन परम्परा में श्रीकृष्ण को एक विशेष प्रयोजन से वासुदेव कहा जाता है । वासुदेव इस मान्यता में किसी व्यक्ति विशेष के नाम के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। यहाँ यह श्रीकृष्ण के लिए एक पद है। वासुदेव जातिवाचक संज्ञा है । वासुदेव एक वर्ग विशेष अथवा श्रेणी विशेष है। वैदिक परंपरा में अकेले श्रीकृष्ण को वासदेव कहा गया है जबकि जैन परम्परा में वासुदेवों की एक परंपरा रही है-जैसे तीर्थंकरों की एक परंपरा है। वासुदेवों की इस परंपरा में श्रीकृष्ण अन्तिम अर्थात् हवें वासुदेव हैं। स्पष्ट है कि इनके पूर्व भी ८ अन्य महापुरुषों को वासुदेव होने का गौरव प्राप्त हो चुका है। जैसे लक्ष्मण वासुदेव इत्यादि ।
यहाँ सहज ही यह जिज्ञासा पुनः बलवती हो जाती है कि यदि वासुदेव कोई पद अथवा वर्ग या श्रेणी विशेष है तो इस वर्ग या श्रेणी की क्या विशेषता है ? वस्तुतः यह जैन मान्यता से संबद्ध एक विशिष्ट पक्ष है। परिवर्तनशील समय के साथ-साथ धर्म भी उत्तरोत्तर उत्कर्ष को प्राप्त करते हए अपने चरम स्तर पर पहुंचकर आकर्षोन्मुख होता है और अंततः पुनः अपकर्षोन्मुख हो जाता है। जैन मान्यतानुसार उत्कर्ष और अपकर्ष काल को क्रमशः उत्सपिणी एवं अवसर्पिणी काल के नाम से जाना जाता है और इन दोनों को मिलाकर एक कालचक्र कहा जाता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल में एक-एक तीर्थंकर परम्परा रहती है। प्रत्येक परम्परा में २४ तीर्थंकर
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