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विषय की शोधानुकूलता और भूमिका ताओं के अनुरूप है। वैदिक परम्परा में श्रीकृष्ण का जो स्वरूप है, जैन साहित्य में उसकी ही अनुकृति मिलती होगी यह कल्पना भ्रांति ही सिद्ध होगी। श्रीकष्ण चरित को जैन वाङमय में जिस प्रकार स्थान प्राप्त हआ है, उसकी गौरवगाथा निराली ही है। जैन वाङमय का आदि रूप आगम ग्रन्थ है। इन आगम ग्रन्थों से ही किसी न किसी रूप में श्रीकृष्ण चरित का चित्रण : आरम्भ हो गया था। नेमिनाथ और श्रीकृष्ण
२२ वें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि के समकालीन श्रीकृष्ण रहे हैं। श्रीकृष्ण के ताऊ समुद्रविजय जी के आत्मज ही भगवान् अरिष्टनेमि थे। इनके पश्चात् २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हुए। तब कालान्तर में इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का उदभव हुआ। भगवान् महावीर स्वामी अपने धर्म की शिक्षाओं और सिद्धांतों का प्रचार अद्भुत रीति से किया करते थे। धार्मिक सिद्धांतों के प्रतिपादन के प्रयत्न में व उनके समर्थन में वे तत्कालीन प्रचलन प्राप्त लोकाख्यानों का आश्रय लेते थे । इस प्रकार भगवान के प्रवचनों में श्रीकृष्ण जीवन के प्रसंग भी उतर आए।
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भगवान् के लिए श्रीकृष्ण प्रसंग का कभी भी लक्ष्य नहीं रहा, ये प्रसंग तो साधन स्वरूप स्वीकार किए गए थे, और उनका साध्य तो जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन और प्रचार ही था, यही साध्य था। साधना का स्वरूप साध्यानुकूल ही होता है। अस्त, श्रीकृष्ण चरित का ऐसा स्वरूप उभरा जो कि जैन धर्म के आदर्शों, नीतियों और सिद्धांतों के अनुरूप था। भगवान् के उपदेशों को लेखबद्ध और विशेष क्रम युक्त करने के सुनियोजित प्रयत्नों के परिणाम-स्वरूप जैनागम ग्रन्थ अस्तित्व में आए । आगमों के आदर्शानुरूप ही आगमेतर जैन साहित्य विकसित होता चला गया। परिणामतः समग्र जैन साहित्य श्रीकृष्णमय हो गया। जैन आगमेतर श्रीकृष्ण साहित्य में भी मेरे शोध विषय की सामग्री आ गयी है।
जैसा कि संकेतित किया गया है श्रीकृष्णचरित को एक विशिष्ट स्वरूप में जैन साहित्य के द्वारा ग्रहण किया गया है, तो यह जिज्ञासा भी बड़ी सहज और स्वाभाविक प्रतीत होती है कि वह विशिष्ट स्वरूप कौन सा है ? जैन साहित्य में श्रीकृष्ण चरित की क्या विशेषताएं हैं ? और वह वैदिक परंपरा के श्रीकृष्ण चरित से किस प्रकार भिन्न है ? इस जिज्ञासा की तुष्टि अन्वेषण,
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