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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य नीतियों और आचरण में एक-रसता है, एक आकर्षण है, एक समाजोपयोगिता है । श्रीकृष्ण चरित्र की लोकप्रियता के मूल में यही बातें प्रमुख रूप से हैं।
भारत में वैदिक मान्यताओं के अतिरिक्त अन्य भी नाना प्रकार के मत, विश्वास, पंथ और आध्यात्मिक सिद्धांत अस्तित्व में रहे हैं और आज भी हैं । इनमें से अधिकांश ने अपने-अपने ढंग मे अपने-अपने आदर्शों के अनुरूप श्रीकृष्ण चरित को महत्व प्रदान किया है। उदाहरण के लिए बौद्ध धार्मिक साहित्य में भी श्रीकृष्ण चरित अपने विशिष्ट रूप में मिलता है। पर, मेरे अध्ययन का यह विषय नहीं है ।
जैन श्रीकृष्ण साहित्य अपनी परम्पराओं से अनेक दृष्टियों में विशिष्ट कोटि का माना जा सकता है । भारतीय वाङ्मय की विशद यात्रा के सहचर के रूप में जैन साहित्य का अति गरिमामय स्थान है। संस्कृत साहित्य अपनी श्री और समृद्धि के लिए निश्चय हो अद्भुत महत्त्व रखता है, किंतु इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि जैन साहित्य ने संस्कृत साहित्य की श्री एवं समृद्धि की वृद्धि में उल्लेखनीय योगदान दिया है। जैन संस्कृत साहित्य की अपनी निराली ही छवि है और उससे समग्र संस्कृत वाङ्मय को एक अद्भुत निखार मिला है। इसके पश्चात् भी साहित्य के प्रत्येक मोड़ पर हमें जैन साहित्य की महत्ता के दर्शन होते हैं। अपने इस विशाल साहित्य भंडार में जैन साहित्य ने श्रीकृष्ण चरित को जिस प्रकार सहेज कर रखा है उससे स्वयं उसकी भी गरिमा अभिवधित हुई है। श्रीकृष्ण का विभूतिमत्व
यह अति सामान्य सो धारणा है कि श्रीकृष्ण वैदिक परंपरा की विभूति है और वैदिक साहित्य में ही श्रीकृष्ण के चरित को स्थान प्राप्त हुआ है। वास्तविकता इससे भिन्न है। जैन साहित्य को इस यथार्थ के प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें श्रीकृष्ण चरित को अत्यन्त महत्त्व और विपुलता के साथ ग्रहण किया गया है।
जैन श्रीकृष्ण साहित्य की समग्र निधि पूरे जैन साहित्य में एक बड़ा अंश व्याप लेती है। मेरे शोध अध्ययन का एक हेतु इस जैन श्रीकृष्ण साहित्य का अनुशोलन करना है।
यह भी प्रमुख रूप से ध्यातव्य है कि जैन साहित्य ने एक अनूठे ढंग से ही श्रीकृष्ण चरित्र को अपनाया है। श्रीकृष्ण का स्वरूप जैनादर्शों एवं मान्य
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