________________
हिन्दी जैन श्रीकृष्ण रास, पुराण-साहित्य और अन्य
२०१ कैवल्य या मोक्षमार्ग का प्रथम चरण है। श्रीकृष्ण अपनी रानियों की सहायता से नेमिकुमार को संसाराभिमुख बनाने और विवाह के लिए तत्पर करने का प्रयत्न करते हैं । यह विघ्न की अवस्था है। किंतु, रानियां असफल रह जाती हैं। यह नायकद्वारा फलप्राप्ति की आशा दिखानेवाली स्थिति प्राप्त्याशा की अवस्था है। नेमिकुमार वरवेष में राजुल के द्वार की ओर बढ़ते हैं। यहां फलप्राप्ति के मार्ग में वास्तविक और प्रबल विघ्न उपस्थित हो जाता है। किंतु, जब वे निरीह पशुओं का करुण-क्रंदन सुनकर विरक्ति भावना से प्रेरित होकर तोरणद्वार से लौट आते हैं तो यहां सारी विरोधी परिस्थितियां पराभूत हो जाती हैं। फलप्राप्ति निश्चित हो जाती है । यह नियताप्ति की अवस्था है । अंत में कठोर तपसाधना द्वारा वे निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं जो कथानक का लक्ष्य है । यह फलागम की अवस्था है । अर्थप्रकृतियों और संधियों का निर्वाह भी इस कथानक में सफलता के साथ हुआ है। कथानक सर्वथा कसा हुआ है और कहीं भी शिथिलता नहीं आ पाई है। मात्र ५८ छंदों में ही सारी कथा वणित कर दी गयी है। इस दृष्टि से भी यह खंडकाव्य ही माना जावेगा। चरित्रचित्रण :
खंडकाव्य की प्रकृति के अनुरूप नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करना ही रचनाकार का प्रमुख लक्ष्य होता है। अन्य पात्रों का चरित्र-चित्रण गौण होता है और वह नायक के चरित्र को उभारने में सहायक मात्र होता है । "नेमिनाथ रास" भी इस सामान्य सिद्धांत का अपवाद नहीं है। इसमें नायक नेमिनाथ को चरित्रचित्रण की दृष्टि से प्रमुखता प्राप्त हुई है । नेमिनाथ श्रेष्ठ राजकुलोत्पन्न अतिसुंदर और सर्वगुण संपन्न राजकुमार हैं और अंततः तीर्थंक रत्व के गौरव से मंडित होते हैं । नायकोचित गरिमा से युक्त नेमिकुमार बलशाली हैं। बाल्यावस्था से ही श्रीकृष्ण के शस्त्रागार में जाकर उन्होंने अपनी शक्ति का जो परिचय दिया है वह इसका प्रमाण है। वे श्रीकृष्ण के धनुष को टंकारित कर देते हैं, जिन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं चढ़ा सकता था। पांचजन्य शंख को वे आस्फुरित कर देते हैं, जिसके आस्फरण से स्वयं श्रीकृष्ण चौंक पड़ते हैं। सर्व सुख-सुविधा सुलभ होने पर भी वे संसार के प्रति आकृष्ट नहीं होते । इन सुखों को असार मानकर वे इनसे उदासीन रहते हैं। राज्य और वैभव के प्रति उन्हें तीव्र विरक्ति थी। यही विरक्ति प्रस्तुत काव्य में अनेक स्थलों पर व्यक्त हुई है तथा उत्तरोत्तर विकसित होती है । यही उदासीनता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org