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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
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काव्यरूप एवं साहित्यिक सौष्ठव :
प्रस्तुत रचना एक चरित्र काव्य है अर्थात् यह एक प्रबंध काव्य है । कथानक की परीक्षा करने पर यह एक खंड काव्य सिद्ध होता है । एक सफल खंडकाव्य चरितनायक नेमिनाथ के जीवन की एक अतिमहत्वपूर्ण घटनापरिणय प्रसंग कथानक के केंद्र में रही है । नेमिनाथ चरित की सीमा में रहकर काव्य इसी के इर्दगिर्द घूमता रहा है । नायक के चरित्र का उद्घाटन बड़े ही कौशल के साथ हुआ है । रस, अलंकार योजना, शैली, वस्तुविधान, प्रबंधात्मकता आदि सभी विशेषताओं से युक्त प्रस्तुत खंड काव्य एक उत्तम कृति है ।
कथानक एवं उसकी संरचना :
जैन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध नेमिनाथ आख्यान प्रस्तुत खंडकाव्य • का आधार रहा है । वृष्णिवंशीय समुद्रविजय सौरियपुर नगर के राजा थे । राजा समुद्रविजय और रानी शिवा देवी राजकुमार नेमि के जनक - जननी थे । इन दिनों द्वारका के समुद्र राज्य के स्वामी श्रीकृष्ण राजकुमार के चचेरे भाई थे । द्वारका में ही समुद्रविजय का भी निवास था और नेमिकुमार का बाल्यकाल द्वारका में श्रीकृष्ण के साथ ही व्यतीत हुआ । आरंभ से ही सभी सुख-सुविधाओं एवं वैभव से परिपूर्ण परिस्थितियों के होते हुए भी
मि निर्लिप्त मन के स्वामी रहे । सुखोपभोग के प्रति उनमें विकर्षण का भाव ही प्रधान रहा । वय होने पर श्रीकृष्ण द्वारा नेमिकुमार का विवाह राजा उग्रसेन की राजकुमारी राजुल के साथ निश्चित कर दिया गया । तोरण द्वार पर पहुंचते-पहुंचते भोज के लिए बांध रखे पशुओं का करुण क्रंदन सुनकर वर नेमिकुमार को संसार से विरक्ति हो आयी और वे अनब्याहे ही लौट आए । रेवतक पर्वत ( गिरनार ) पर तपस्या लीन नेमिनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे अर्हन्त कहलाए । राजीमती ने भी इनके सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। कालांतर में दोनों को मोक्ष प्राप्त हुआ । संक्षेप में "नेमिनाथ रास" का यही घटनाक्रम है ।
शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो कार्य व्यापार की विभिन्न अवस्थाओं के उचित निर्वाह से कथानक - विकास भी सफलता के साथ हुआ है । नेमिनाथ द्वारा कैवल्य-प्राप्ति इस कथानक में उद्देश्य अथवा फल है । सांसारिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता का भाव और निर्लिप्तता चरितनायक के जीवन के इस रूप में आरंभ अवस्था दिखाई देती है । विरक्ति ही तो
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