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जैन-परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य मुनि बलदेव ने घोर तप किया। विचरण करते हुए वे नगर के बाहर एक कुएँ के पास पहुँचे; जहाँ जल लेने को एक स्त्री आयी थी। वह मुनि के रूप पर मुग्ध हो गयी और घड़े के स्थान पर अपने बालक के गले में रस्सी का फन्दा कसने लगी। स्त्री को सचेत कर बालक के प्राण मनि ने बचा लिये, पर उनको अपने रूप पर क्षोभ होने लगा और उन्होंने अभिग्रह लिया कि अब मैं किसी बस्ती में न जाऊँगा। वन में ही निर्दोष भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा निराहार रहूँगा।
वन में तपस्यारत मुनि बलराम को देख कर वनवासी भांति-भांति की कल्पना करते थे। कोई उन्हें तापस मानते थे तो कोई तंत्रसाधक। सूचना पाकर राजा अपनी सेना लेकर वन में आया। वह मुनि को मार देना चाहता था । अवधिज्ञान से देव (सिद्धार्थं) को सब कुछ ज्ञात हो गया। उस ने वन में अनेक सिंह विकुर्वित कर दिये । भयंकर सिंहों से आतंकित सेना भागाँखड़ी हुई। राजा मुनिराज के चरणों में गिरकर अपने अशुभ विचार पर बार-बार क्षमा याचना करने लगा। देव ने दयापूर्वक अपनी माया हटा ली।
मुनि की प्रबल अहिंसा भावना का प्रभाव वन के पशु-पक्षियों पर भी था। पारस्परिक वैमनस्य भुलाकर वे स्नेहपूर्वक एक साथ रहने लगे। स्नेहाभिभूत होकर एक मग तो सदा मुनि के साथ रहने लगा। मृग जिधर निर्दोष आहार की सम्भावना होती मुनि को उधर ही ले चलता था। यह मग एक दिन मुनि को एक रथारूढ़ व्यक्ति के पास ले गया। रथी ने सभक्ति प्रणाम कर निर्दोष आहार अर्पित किया। मग के नेत्र साश्रु हो उठे। वह रथि को सौभाग्यवान मान रहा था; जिसे मनि सेवा का अवसर मिला। मुनि सोच रहे थे कि यह श्रावक उत्तम बद्धिवाला और भद्र परिणामी है।
जरत्कुमार (जराकुमार) के बाण से श्रीकृष्ण के निधन का समाचार पाकर पांडवगण द्रौपदी और माता कुंती वहां आते हैं और श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार करने के लिए बलदेव से निवेदन करते हैं। बलदेव कुपित
हो जाते हैं। तब पांडवादि बलदेव के इच्छानुसारी हो गये। चातुर्मास समाप्त हो जाने पर श्रीकृष्ण की मृत काया से दुर्गन्ध आने लगी, तो
सिद्धार्थ देव ने आकर बलदेव को प्रतिबोधित किया। हरिवंश ७३/५४-६८ (ख) पांडवपुराण (शुभचंद्राचार्य) के अनुसार -
पहले सिद्धार्थ देव आकर बलदेव को प्रतिबोध देते हैं, किंतु उन पर कोई प्रभाव नहीं होता। बाद में पांडव आकर उन्हें स्नेहपूर्वक समझाते हैं तब उनका मोह कुछ कम होता है । पर्व २२, श्लोक ७८-७९
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