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प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
बलदेव द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करना
जल लेकर लौटे तो बलराम ने भाई को अचल पाया। उन्होंने बारबार पुकारा, पर कोई उत्तर न पाकर उन्होंने सोचा भाई निद्रा-मग्न है । मोहवश वे मरण की कल्पना भी नहीं कर पाये । वे श्रीकृष्ण की पार्थिव देह कंधे पर लादे वन में भटकने लगे । किसी समय सिद्धार्थ बलराम का सारथी था, जो संयम का पालन कर देव हो गया था । देव ने बलराम की मोहदशा दूर करने का प्रयत्न किया । प्रस्तर रथ तैयार कर उसे ढ़लान से लुढ़का दिया और रथ खंड-खंड हो गया । देव प्रस्तर खंडों को जोड़ने लगा । बलदेव ने कहा- - प्रस्तर खंड भी कहीं जुड़ सकते हैं ? देव ने प्रत्युत्तर में कहा - मृतक भी कभी सजीव हो सकता है ? और अप्रभावित से बलराम आगे बढ़ गये । देव फिर बलराम को आगे मिला एक किसान के रूप में, जो पत्थर पर कमल उगा रहा था । बलराम ने कहा- तुम बावले हो, पत्थर पर भला कभी कमल खिल सकता है ? किसान रूप में देव ने उत्तर दिया- मुर्दे भी भला कभी जीवित हो सकते हैं ? पर बलराम का मोह न छूटा, वे आगे बढ़ गये । अब किसान रूप में वही देव एक सूखे पेड़ के ठूंठ को पानी पिलाता हुआ मिला तो बलराम ने कहा – तुम मूर्ख हो, सूखा ठूंठ भी कभी हरा हो सकता है ? देव ने अब की बार स्पष्टता के साथ कहा- फिर तुम्हारा मृत भाई कैसे जीवित हो सकता है ? बलराम सघन मोह से घिरे थे, वे कथन को श्रीकृष्ण के संदर्भ में नहीं जान पाये और आगे बढ़ गये । आगे बलराम ने देखा कि एक मृत गाय को किसान घास खिलाने का प्रयत्न कर रहा है । किसान को इस बार भी मूर्ख कहते हुए बलराम ने कहा- तुम्हारा प्रयत्न सफल न होगा । मृत गाय घास कैसे खायगी ? किसान ने कहा- तुम भी किसी आशा से ही अपने भाई का शव ६ महिने से कंधे पर लादे घूम रहे हो । अब बलराम का मोह टूटा । उन्हें लगा कि मृत देह से दुर्गंध आ रही है। उन्होंने पार्थिव तन कंधे से उतारा और अंतिम संस्कार किया 1214 मुनि के सदुपदेश से बलदेव प्रतिबोधित हुए और उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।
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१७. श्रीकृष्ण का तिरोधान और द्वारिका का अंत - आयु १२० वर्ष, सं० ३००८ वि पूर्व ।
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१८. परीक्षित का राजतिलक और पांडवों का हिमालय प्रस्थान - सं० ३००७ वि० पूर्व
१६. श्रीकृष्ण का मरण न मानकर वैदिक परंपरा में उनका तिरोधान माना गया है ।
२१४. ( क ) हरिवंशपुराण - ( आचार्य जिनसेन) के अनुसार -
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