SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ जैन - परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य देव ने देखा कि द्वारका की प्रजा तो धर्मनिष्ठ है । वे कोई अहित न कर पाये । उन्हें ११ वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी। तब तक प्रजा विनाश के भय से मुक्त होकर धर्म - शिथिल होने लगी । मदिरा का भी पुनः प्रचलन हो गया था 1 201 द्वैपायन के लिए अब अनुकूल परिस्थितियाँ बनने लगीं। उन्होंने संवर्त वायु के प्रयोग से वन का सूखा काष्ठ-घास आदि द्वारका में एकत्रित कर दिया । आकाश से अंगारे बरसने लगे । त्राहि-त्राहि मच गयी । द्वारका का वैभव अग्नि की भेंट होने लगा । प्राण बचाकर भागती प्रजा को अग्निकुमार द्वैपायन निर्ममता पूर्वक अग्नि में झोंकने लगा । वसुदेव-देवकी और रोहिणी को रथ में बिठाकर श्रीकृष्ण व बलराम स्वयं रथ खींचकर उन्हें सुरक्षित स्थल पर ले जाने लगे । नगर-द्वार बंद और रथ ध्वस्त हो गया 1 202 बलराम ने पाद प्रहार से द्वार तोड़ा तो अग्निदेव ने प्रत्यक्ष होकर कहा कि इनकी रक्षा का प्रयत्न व्यर्थ है । तुम दो भाइयों के अतिरिक्त सब कुछ नष्ट होगा । पिता एवं दोनों माताओं ने संथारा लिया और आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे 1203 श्रीकृष्ण बलराम के साथ जीर्णोद्यान में चले गये । ६ माह तक अग्नि प्रज्वलित रही और वह भव्य वैभवपूर्ण नगरी राख की ढेरी हो गयी 1204 समुद्र में प्रचंड तूफान उठा और यह दग्ध द्वारका जलमग्न हो गयी । छः माह पूर्व जहाँ भव्य नगर था, अब वहां समुद्र हिलोरे लेने लगा 1 205 I श्रीकृष्णावसान जीर्णोद्यान से अपनी प्रिय द्वारका को नष्ट होते देखने का सामर्थ्य भी जब चुक गया तो श्रीकृष्ण वहां से हट जाना चाहते थे, पर कहां जाएं ? यह प्रश्न था । अनेक राज्य - विरोधी हो चुके थे 1206 पांडवों को निष्कासित किया था अत: पांडुमथुरा जाने में भी श्रीकृष्ण को संकोच था । बलराम के प्रयत्नों से अंततः वे वहां जाने को चल दिये 1207 मार्ग में धृतराष्ट्र पुत्र अच्छंदक का २०१. त्रिषष्टि : ८/११/७४-७६ २०२. हरिवंश के पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारिका का कोट तोड़कर समुद्र के प्रवाह से उस आग को बुझाने लगे, बलदेव समुद्र के जल को हल से सींचने लगे तो भी अग्नि शांत नहीं हुई । - हरिवंश : ६१ / ८१-८४ २०३. त्रिषष्टि : ८/११/८१-८८ । २०४. त्रिषष्टि: ८/११/८६ २०६. त्रिषष्टि : ८ / ११ / ६५ Jain Education International २०५. त्रिषष्टि : ८ /११/६० २०७. त्रिषष्टि : ८/११/१६-१०० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy