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________________ १८१ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा बलराम बच जाओगे और कालांतर में जराकुमार के वाण से तुम मरण को प्राप्त करोगे।198 जराकुमार को अग्रज के विरुद्ध अपने भयंकर अपराध की भविष्यवाणी से आत्मग्लानि हुई। यह सोचकर कि मैं वासुदेव के साथ ही नहीं रहूँगा तो यह कुकर्म टल जायगा-वह वन में चला गया । दवैपायन भी द्वारकाविनाश के हेतु बनने से बचने के लिए वन में चले गये ।199 भगवान ने यह संकेत भी दिया कि वासुदेव श्रीकृष्ण का जीव ही अपने एक भावी भव में अमम नाम के १२ वें तीर्थंकर होंगे। इन्हीं के शासन काल में बलराम का जीव भी मुक्तिलाभ करेगा। __ मदिरा से द्वारका-विनाश का भय हृदयंगम कर वासुदेव श्रीकृष्ण ने मदिरा के निर्माण एवं सेवन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सारी मदिरा एकत्रित कर उसे नष्ट करने के प्रयोजन से कदंब वन की कादम्बरी कन्दरा के शिला-कूण्डों में फेंक दी गयी। द्वारका-रक्षार्थ प्रजा धर्मसंकुल जीवन बिताने लगी। शिला-कूण्डों में नष्ट होने के स्थान पर मदिरा पुरानी होकर अधिक स्वादु, अधिक मादक बन गयी । शांब का सेवक वन में तृषालु होकर भटक रहा था। शिलाकुण्ड में संग्रहीत द्रव पीकर तो वह मस्त हो गया। सेवक ने उसका आनन्द शांब को भी दिया और फिर तो मदिरा का लोलप शांब अनेक यादवों के साथ कंदरा पहुँच गया। ये लोग जब मदोन्मत्त हो वनविहार कर रहे थे, सहसा ध्यानमग्न दवैपायन को देख क्रीडावश वे उन्हें सताने लगे, उन्हें मारा-पिटा भी।200 रुष्ट ऋषि ने सम्पूर्ण द्वारका को भस्म कर देने का निदान कर लिया । श्रीकृष्ण-बलराम इस कांड से सन्न रह गये। यादवों की धृष्टता के लिए उन्होंने ऋषि से क्षमायाचना की, किंतु ऋषि अतिशय कुपित थे। बोले तुम दोनों ने सविनय क्षमा मांगी है-तुम्हें हानि नहीं पहुँचाऊँगा, पर शेष द्वारका को भस्म करने का निदान कर चुका हूं। कालांतर में वैपायन का शरीरांत हो गया और उनका जीव अग्निकुमार देव बना तथा पूर्वभव के निदान को विस्मृत न कर पाया। द्वारका आकर १६८. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र : ८/११/३-६ (ख) भवभावना ३७८३-३७६२ (ग) हरिवंशपुराण : ६१/२३-२४ १६६. द्वैपायनोऽपि तत्श्रुत्वा, लोकश्रुत्या प्रभोर्वचः। द्वारकायां यदूनां च, रक्षार्थ वनवास्यभूत् । हरिवंशपुराण । २००. (क) त्रिषष्टि :-८/११/२३-३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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