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________________ १८३ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा हस्तिकल्पनगर आया। श्रीकृष्ण उपवन में विश्राम करने लगे 208 और बलराम भोजन व्यवस्था के लिए नगर में गये । खाद्य पदार्थों के मूल्य रूप में उन्होंने व्यापारी को स्वर्णमुद्रिका दो जिसे देख वह शंकित हो उठा और राजा को सूचित किया। राजा सैनिकों सहित आ पहुँचा और आक्रमण कर दिया । बलराम के सिंहनाद करने पर श्रीकृष्ण भी पहुँच गये और अच्छंदक को पराजित कर दिया। ज्येष्ठ भ्राता बलराम कोशांबी नगरी के वन में पहुँचे । श्रीकृष्ण को प्यास लगी थी। बलराम जल लेने को गये और श्रीकृष्ण एक वृक्ष तले लेट गये ।209 वे एक पैर के घटने पर दूसरे पैर की पिंडली टिकाए हुए थे, जिसकी पगतली को देख कर दूर से व्याध को हिरण का भ्रम हुआ और उसने बाण मारा, वे तुरन्त उठ बैठे और उच्च स्वर में पूछा-किसने मुझे बाण मारा? आज तक बिना नाम गोत्र बताए किसी ने मुझ पर प्रहार नहीं किया,10 तुरंत व्याध को अपनी भूल ध्यान में आ गयी और वह हतप्रभ सा एक वृक्ष की ओट में छिप गया। वहीं से उत्तर देते हुए उसने कहा-वसुदेव और जरादेवी मेरे जनक-जननी हैं, भगवान अरिष्टनेमि की भविष्य वाणी सुन भ्राता श्रीकृष्ण की हितकामना के साथ ही मैं वन में चला आया और १२ वर्ष यहां व्यतीत कर दिए । अब तक किसी मानव को मैंने इस वन में नहीं देखा, तुम कौन हो ?11 श्रीकृष्ण समझ गये कि यह जराकुमार ही है। स्नेह मिश्रित स्वर में श्रीकृष्ण ने जरा को बुलाकर कहा-मुझे खेद है कि तुम्हारा १२ वर्ष का वनवास सफल नहीं हुआ, तुम मेरे मरण को टालना चाहते थे, आज वही तुम्हारे हाथों हो गया। मैं तुम्हारा भाई श्रीकृष्ण हैं। अब शोक करना व्यर्थ है। तुम बलराम के लौट आने के पूर्व ही यहां से चले जाओ, अन्यथा वह तुम्हें जीवित न छोड़ेंगे। तुम्ही यादव वंश में बचे हो, जाओ, पांडु मथुरा जाकर पांडवों को द्वारका-दाह और मेरी स्थिति से अवगत कराते हए कहना कि उन्हें निष्कासित करने के कारण मैं क्षमा चाहता हूँ। श्रीकृष्ण के पैर से बाण निकालकर जराकुमार आदेशानुसार चल पड़ा।12 श्रीकृष्ण ने पूर्वाभिमुख हो, अंजलि जोड़कर पंच परमेष्ठि को प्रणाम करते हुए कहा कि रुक्मिणीदेवी और प्रद्युम्न आदि कुमार धन्य हैं; जिन्होंने २०८. त्रिषष्टि : ८/११/११९-१२० २०९. त्रिषष्टि : ८/११/१२१-१२२ २१०. वही ८/११/१२३-१३२ २११. त्रिषष्टि : ८/११/१३४-३५. २१२. त्रिषष्टि : ८/११/१५१-१५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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