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________________ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा १७५ पांडवों को तुच्छ मानता है और उसे पराजित करके ही पांडव अपने अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। धृतराष्ट्र का सन्देश परिस्थितियों की विषमता को देख धृतराष्ट्र ने धर्मराज के पास संजय द्वारा सन्देश भेजा कि तुम 178 विवेकशील हो, ज्ञानीजन स्वार्थ त्याग कर भ्रातहित में अनेक उत्सर्ग करते हैं। युद्ध भयानक परिणामदायक होता है । अपराजय का विश्वासी पात्र भी कभी परास्त हो जाता है। दुर्योधन के कथन पर कान न देकर तुम शुभाशुभ का निर्णय विवेक बुद्धि से करो, यद्ध न होने दो । युधिष्ठिर ने उत्तर में कहा कि धृतराष्ट्र एक बात कहना भूल गये कि अन्याय का प्रतिकार भी न्याय है । अन्यायी का अन्याय सहन करना अन्याय को प्रश्रय देना है। ऐसी सहिष्णुता स्वयं में अन्याय है।179 पिता भी दुराचारी हो तो वह त्याज्य होता है । दुर्योधन तो तुम्हारा पुत्र ही है। दुराचारी अपने मित्रों, रक्षकों और सहायकों का भी विनाश कर देते हैं। श्रीकृष्ण द्वारा दूत कार्य श्रीकृष्ण चाहते थे कि युद्ध के बिना राज्याधिकार की यह समस्या सुलझ जाय । दुर्योधन को सन्मार्ग पर लाने के प्रयोजन से वे स्वयं उसके पास गये। उसने भव्य स्वागत कर श्रीकृष्ण को रत्नासन दिया। उन्होंने कहासंजय कदाचित् संधि-प्रस्ताव लाया था, पर वह धर्मराज के समक्ष रख न सका, रखता तो भी वह स्वीकृत न होता । यदि युद्ध हुआ तो वह कौरवों के लिए महाविनाशकारी सिद्ध होगा। इस परिणाम से अशान्त हो, मैं पांडवों को जताये बिना ही यहाँ चला आया।180 श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि पांडवों को यदि थोड़ा सा राज्य भी शांति के साथ तुमने न दिया तो वे परमवीर कौरवों का सर्वनाश कर देंगे। मिथ्या दंभ और स्वार्थ का त्याग करने में ही तुम्हारे कुल का हित है। तुम पांडवों को ५ गाँव दे दो। उनके प्रतिष्ठा को रक्षा भी हो जायगी और उन्हें भी सिर छिपाने की जगह भी मिल १७८. महाभारत के अनुसार संजय दूत बनकर पांडवों के पास जाता है। उसमें धृतराष्ट्र संजय को संदेश देते हैं । उसमें धृतराष्ट्र का आंतरिक प्रेम पांडवों के प्रति झलक रहा है। -महाभारत उद्योगपर्व अ० २२ वां १७९. महाभारत में भी धर्मराज संजय को कहते हैं कि मैं संधि के लिए तत्पर हो सकता हूं यदि दूर्योधन मेरा इंद्रप्रस्थ का राज्य पुनः मुझे दे दे। १८०. महाभारत के अनुसार श्रीकृष्ण पांडवों के विचार-विमर्श के पश्चात ही शांति वार्ता के लिए गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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