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________________ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा १७३ यही करना था तो मेरी पुत्री का जीवन क्यों नष्ट किया ? गीली मिट्टी का घेरा तपस्वी के मस्तक पर बनाकर उसमें उसने चिता के अंगारे भर दिये । मुनि गजसुकुमाल ने यह भयंकर उपसर्ग सहन कर लिया और शरीर त्याग कर मुक्त हो गये । 178 गजसुकुमाल के साथ में वसुदेव के अतिरिक्त ८ दशाह सहित अनेक यादवों ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी । देवकी, रोहिणी व कनकावती को छोड़ वसुदेव की शेष रानियां, अनेक यादव कुमारियों के साथ साध्वी हो गयीं थीं । आगामी प्रातः श्रीकृष्ण जब भगवान के समवसरण में गये तो गजसुमाल को न देखकर उसके विषय में पूछा। भगवान ने कहा कि उसने तो कल ही मोक्ष प्राप्त कर लिया, उसे एक सहायक जो मिल गया था । श्रीकृष्ण भगवान की गूढ़ वाणी का अर्थ समझ गये - अवश्य ही किसी ने उसे कठोर उपसर्ग दिया है और उनके नेत्र रक्ताभ हो उठे । प्रभु ने कहा कि उस पर क्रोध करना व्यर्थ है । लौटते समय वह तुम्हें नगर द्वार पर मिल जाएगा और तुम्हें देखकर स्वतः ही वह मर जाएगा । श्रीकृष्ण को नगर प्रवेश के समय सोमशर्मा मिल गया जो उनके भय से आतंकित हो गिर पड़ा और श्रीकृष्ण के हाथी के पैरों तले कुचलकर मर गया । 174 महाभारत प्रसंग युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - ये पाँचों भाई राजा पांडु के पुत्र होने से पांडव कहलाते थे । इनकी माता कुन्ती वसुदेव की सहोदरा थी और इस प्रकार पांडवों के साथ श्रीकृष्ण का सम्बन्धजन्य स्नेह था । 175 पांडु के 'अनुज धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कौरव कहलाते थे । दुर्योधन ज्येष्ठ था । पांडव हस्तिनापुर के और कौरव इन्द्रप्रस्थ के स्वामी थे । युधिष्ठिर न्यायप्रिय, सत्यवादी और सदाचारी थे और धर्मराज कहलाते थे, जब कि दुर्योधन अन्यायी, अनाचारी और दुरात्मा था, उसका नाम ही दुर्योधन था । पांडवों के वैभव, पुण्य और कीर्ति से उसे बड़ी ईर्ष्या थी, और उनका राज्य वह हड़प लेना चाहता था । बल से विजय की आशा न होने पर छल को उसने साधन बनाया । द्यूतक्रीड़ा में पराजित कर दुर्योधन ने पांडवों का सब कुछ छीन लिया, यहाँ तक की द्रौपदी पर भी अधिकार कर लिया और भरी सभा में दुःशासन ने उसका चीरहरण किया और दुर्योधन ने उसे अपनी निर्वस्त्र १७४. वही १७३. अन्तगडसूत्र १७५. पांडवचरित्र – देवप्रभ सूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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