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________________ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा १७१ प्रताडित कर अपदस्थ कर दिया और उसके पुत्र को शासक बना दिया ।163 रथमर्दन नगर व पाण्डुमथुरा की स्थापना : द्रौपदी उद्धार के पश्चात् अमरकंका से लौटते समय कृष्ण सुस्थिर देव से भेंट करने को पीछे रह गये और पाण्डवों ने नौका से लवणसमद्र की महानदी गंगा को पार कर लिया और नौका को श्रीकृष्ण के लिए वापस न भेज कर उसे छिपा दिया ।164 श्रीकृष्ण भुजाओं से जल चीरते हुए धारा पार करने जगे। ६२ योजन चौड़ी धार थी। श्रीकृष्ण थक गये। गंगा ने स्थल बना दिया जिस पर कुछ विश्राम कर उन्होंने शेष धारा को पार किया। पांडवों की शक्ति के विषय में उनके मन में प्रशंसा का भाव था कि उन्होंने बिना सहारे के धारा को पार कर लिया। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि पांडवों ने नौका से धारा पार की, तो पूछा कि मेरे लिए नौका क्यों नहीं भेजी? पांडवों ने कहा कि हम आपकी शक्ति-परीक्षा लेना चाहते थे ।165 श्रीकृष्ण ने रोषपूर्वक कहा कि द्रौपदी उद्धार के पश्चात भी परीक्षा शेष रह गयी थी क्या ? देखो मेरी शक्ति-यह कह कर एक लोहदंड के प्रहार से उन्होंने रथ नष्ट कर दिये। यहां पर बाद में रथमर्दन नगर बस गया।166 द्वारका प्रस्थान के पूर्व श्रीकृष्ण ने पांडवों को निर्वासन का आदेश दे दिया।167 हस्तिनापुर पहुंच कर पांडव बड़े चिंतित रहे कि अब निर्वासित होकर वे कहां रहें ? समस्त दक्षिण भरतार्द्ध के स्वामी तो श्रीकृष्ण हैं । उससे बाहर कौन सी ठौर है? उन्होंने माता कुंती को इस समाधान के लिए श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजा।168 श्रीकृष्ण ने समाधान दिया कि पांडव दक्षिण दिशा में वैताढ्य तट पर पांड़ मथरा बसाकर मेरे प्रच्छन्न सेवक बनकर रहें । पांडवों ने ऐसा ही किया और हस्तिनापुर त्यागकर पांडु मथुरा बसायी (169 श्रीकृष्ण ने अपनी भगिनी सुभद्रा और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को हस्तिनापुर के राज्यासन पर अभिषिक्त किया। गजसुकुमाल : देवकी का आठवां पुत्र एक प्रातः दो मुनि देवकी के द्वार पर आये और देवकी ने उन्हें केसरिया मोदक से प्रतिलंभित किया। कुछ समय बाद वैसा ही मुनियुग्म १६३. (क) त्रिषष्टि : ८/१०/७४-७५ (ख) पांडवचरित्र देवप्रभसूरि सर्ग १७ १६४. त्रिषष्टि : ८/१०/७७-८० १६५. वही-६/१०/८५ (ख) ज्ञातासूत्र अ० १६ १६६. त्रिषष्टि : ८/१०/८६.८७ १६७. वही-८/१०/८८ १६८. पांडव चरित्र सर्ग १७ १६६. अन्तगडसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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