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________________ १६६ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा मुझे पुनः हस्तिनापुर के राजभवन में पहुंचा दो, अन्यथा श्रीकृष्ण तुम्हारा सर्वनाश कर देंगे। वे मेरे भ्राता हैं ।154 दंभी पद्मनाभ ने अट्टहास-पूर्वक कहा कि श्रीकृष्ण का इस धातकी खण्ड में कोई वश नहीं है। यहां के वासुदेव कपिल हैं, श्रीकृष्ण नहीं। इस लंपट से आत्मरक्षा के लिए नीति ही सहायक हो सकती है-ऐसा मान कर द्रौपदी ने राजा से कहा कि, स्त्री अपने पति के प्रेम को इतना शीघ्र कैसे भूल सकती है ? मुझे कुछ अवसर दो । उसने एक माह की अवधि मांगी।155 इस अवधि में यदि मुझे कोई लेने नहीं आया तो मैं आपकी हो जाऊँगी। राजा ने इसे स्वीकार कर लिया। द्रौपदी ने अभिग्रह लिया कि मैं पति के बिना एक माह तक भोजन नहीं करूंगी। हस्तिनापुर में द्रौपदी की खोज होने लगी। असफल पांडवों ने माता कुंती से निवेदन किया कि द्वारका जाकर वे श्रीकृष्ण से सहायता मांगे । श्रीकृष्ण ने पक्का आश्वासन दिया। कालांतर में नारद जी द्वारका आए तो 'श्रीकृष्ण ने कहा--द्रौपदी आज कल किसी अज्ञात स्थल पर है। आप सर्वत्र विहारी हैं। शायद आपने उसे कहीं देखा हो ? श्रीकृष्ण को उनसे पता चल गया कि द्रौपदी का अपहरण कर उसे अमरकंका ले जाया गया है। उन्होंने इस आशय का संदेश हस्तिनापुर भेजकर पांडवों को सूचना दी कि वे चतुरंगिणी सेनासहित वैतालिक समुद्र तट पर मेरी प्रतीक्षा करें। वहां पहुंचने पर समुद्र पार करने की समस्या आयी। श्रीकृष्ण ने लवणसमुद्र के अधिष्ठायक देव सुस्थिर की आराधना कर उससे आग्रह किया कि वह उनके रथों को अमरकंका पहुंचा दे। समुद्र ने देव के प्रभाव से मार्ग दे दिया और छहों रथ अमरकंका पहुंच गये। श्रीकृष्ण की आज्ञा से उनका सारथी दारुक पद्मनाभ के पास पहुंचा और अत्यंत कठोरता के साथ उसे अपने स्वामी का संदेश देते हुए कहा कि, आज अगर तू जीवित रहना चाहता है तो द्रौपदी देवी को वासुदेव श्रीकृष्ण को सौंप दे, अन्यथा युद्ध के लिये बाहर आ।156 अहंकारी पद्मनाभ ने द्रौपदी को लौटाने से इनकार कर दिया और युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। वह सेनासहित नगर से बाहर आया। १५४. ज्ञाताधर्मकथा, हरिवंशपुराणादि के अनुसार श्रीकृष्ण द्रौपदी के पति के भाई थे। १५५. (क) हरिवंशपुराण में भी एक मास की चर्चा है। किंतु ज्ञाताधर्म कथा में यह अवधि ६ मास की है । द्रौपदो षष्ठ-षष्ठ आयंबिल तप करती हुई रहने लगी। देखें-ज्ञाताधर्मकथा-अ० १६. (ख) त्रिषष्टि ८/१०/२० (ग) हरिवंशपुराण ५४/३६ १५६. ज्ञाताधर्म० अ० १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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