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________________ १६८ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य द्रौपदी-हरण : श्रीकृष्ण द्वारा उद्धार : कलहप्रिय नारद जी ऊपर से शांत और गंभीर, भद्र और विनीत तो लगते थे, किंतु वे कलुषित हृदय भी कम न थे।150 किसी समय वे पांडवों के राजभवन में आये। माता कुंती और पांडवों ने उनका अतिशय आदर सत्कार किया, किंतु उन्हें असंयत, अविरत, अप्रतिहत, प्रत्याख्यात, पापकर्मा मानकर द्रौपदी ने ऐसा नहीं किया, न ही उनकी पर्युपासना की। 51 इस उपेक्षा से रुष्ट नारद जी ने सोचा-द्रौपदी गर्विष्ठा हो गयी है, उसका अप्रिय करना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। 52 उन्होंने सोचा, पतिवियोग से बड़ा कोई कष्ट किसी सती नारी के लिए नहीं हो सकता, किंतु उन्हें यह विश्वास भी था कि श्रीकृष्ण के भय से दक्षिण भरतार्द्ध का कोई राजा द्रौपदी का अपहरण करने को तत्पर न होगा। अतः वे धातकी खण्ड के भरत क्षेत्र की राजधानी अमरकंका पहुंचे, जहां पद्मनाभ नामक राजा का शासन था । उसके अंतःपुर में ७०० संदरी रानियां थीं। अपने इस वैभव पर गवित होते हए उसने पूछा, ऋषिराज, आपने ऐसी सुंदरियां अन्यत्र भी कभी देखी हैं ?153 उपहास के स्वर में नारद जी ने उत्तर दिया कि यदि तुम इसे ही सुंदरता मानते हो तो फिर यह जानते ही नहीं कि संदरता कहते किसे हैं ? पांडव रानी द्रौपदी के सौंदर्य के सामने तुम्हारी रानियां तो कुछ भी नहीं हैं। द्रौपदी प्राप्ति की कामना से प्रेरित राजा पदमनाभ ने सांगतिक देव (पातालवासी) को आज्ञा दी ; जो सोती हुई द्रौपदी को अमरकंका-राजभवन में ले आया। प्रातः जागृत होने पर एक परपुरुष को समीप पाकर वह सकुचा गयी और परिस्थिति को समझ न सकी। राजा ने उसे आश्वस्त करते हुए अपना वैभव एवं पराक्रमपूर्ण परिचय दिया और आग्रह किया कि द्रौपदी उसे अपना ले । आसन्न संकट से अवगत हो द्रौपदी ने राजा को सचेत किया कि तुमने छलपूर्वक मेरा अपहरण किया है। तुम्हारी कुशलता इसी में है कि १५०. इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो अंतोय कलुसहिए। -ज्ञाताधर्म अ० १६ पृ० ४६१ १५१. (क) ज्ञाताधर्म अध्याय १६ पृ० ४६४ (ख) त्रिषष्टिशलाका ८/१०/२ (ग) हरिवंशपुराण के अनुसार द्रौपदी आभूषण धारण करने में व्यस्त थी, __ अतः उसने नारद की ओर देखा नहीं-हरिवंशपुराण ५४/५ ।। १५२. (क) ज्ञाताधर्म कथा अ. १६ (ख) हरिवंशपुराण ५४/६-७; त्रिषष्टि ८/१०/३ १५३. (क) त्रिषष्टिशलाका : ८/१०/५-६ (ख) हरिवंशपुराण ५४/८-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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