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प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
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मुनिराज ने द्रौपदी की पूर्वभव कथा भी कही कि, कभी चंपानगरी में तीन ब्राह्मण सहोदर रहा करते थे। एक भाई सोमदत्त के यहाँ तीनों का भोजन था और उसकी पत्नी नागश्री ने कई व्यंजन तैयार किये, पर तुम्बी की शाक कड़वी होने के कारण नहीं रखी। उसने वह शाक धर्मरुचि अणगार को बहरा दी। आचार्य घोष ने विकृति भाँप कर किसी निर्दोष स्थान पर शाक डाल देने का आदेश दिया। थोड़ा सा शाक भूमि पर गिरा और अनेक चींटियाँ मर गयीं तो धर्मरुचि को अनुकम्पा हो आयी और शेष शाक स्वयं खाकर उन्होंने समाधिपूर्वक देह त्याग दी। इस घटना से सभी नागश्री की भर्त्सना करने लगे। पति ने उसे घर से ही निकाल दिया। अनेक कष्ट पाकर जब उसकी मृत्यु हुई तो नरक में गयी, फिर चांडालिनी बनी। यह क्रम चलता रहा । एक भव में वह सागरदत्त सेठ की पुत्री सुकुमारिका के रूप में जन्मी। पिता ने जिनदत्त के पुत्र सागर के साथ सुकुमारिका का विवाह कर दिया और सागर को घर-जवाँई रख लिया। सुकुमारिका से सागर को सुख न मिला। उसका देह तो अंगारों की भाँति दाहक था । आतंकित सागर सुकुमारिका को त्याग कर चला गया । कन्या का विवाह तब अन्य युवक से हुआ और वह भी छोड़ भागा। पिता ने यह परिणाम पुत्री के पापोदय का माना। सुकुमारिका ने साध्वी गोपालिका के पास संयम ग्रहण कर लिया और छह तप आरम्भ किया। गुरु की अनुमति न होने पर भी वह उद्यान में सूर्य आतापना लेने लगी। उद्यान में वेश्या देवदत्ता अपने पाँच प्रेमियों के संग क्रीड़ा कर रही थी। साध्वी के चंचल मन में वासना अंगड़ाइयाँ लेने लगी। उसने निदान किया कि इस तपस्या के फलस्वरूप मैं भी पांच पतियों वाली बनूं । साध्वी का जीव ही वर्तमान में द्रौपदी के रूप में है। मुनिराज ने कहा कि लोकरीति के विरुद्ध आचरण से कि यह पांच पतियों वाली है, इसकी निंदा तो हो सकती है, किंतु पूर्वकृत तपस्या के फलस्वरूप उसे महान सती का गौरव भी प्राप्त होगा।
कौरवों के मन में राज्य-लोभ जागा और पांडवों से राज्य छीन लिया। राज्य को पुनः हस्तगत करने के लिये युधिष्ठिर ने द्यूत का सहारा लिया। उन्होंने द्रौपदी को भी जुए के दांव पर लगा दिया और हार गये। दुर्योधन ने द्रौपदी को तो लौटा दिया पर समस्त राज्याधिकार उसी के पास रह गये। पांडवों को वनवास मिला। वनवास की अवधि पूर्ण हुई और पांडव द्वारका पहुंचे और सुखपूर्वक रहने लगे। दशा) की पुत्रियों से इनके विवाह भी हुए।
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