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________________ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य देह की नहीं देही की उपासिका थी। यही कारण है कि वह भी अरिष्टनेमि के ही मार्ग पर बढ़ी और उनसे भी पहले मुक्त हो गयी।145 द्रौपदी स्वयंवर कथा राजा द्रुपद की सुता द्रौपदी जैन परम्परा में सती-शिरोमणि के रूप में मान्य है। पांचाल नरेश की राज्यकन्या होने के कारण उसे “पांचाली" भी कहा जाता है। उसकी माता का नाम चूलनी था । द्रौपदी स्वयंवर हेतु अनेक राजा-युवराजों को आमंत्रित किया गया था। प्रथम निमंत्रण श्रीकृष्ण और दशा) को भेजा गया था।146 वे द्रपद की राजधानी कंपिलपुर पहँचे। अनेक शूर वीर नरेश उपस्थित थे कितु इससे अविचलित द्रौपदी ने वरमाला पाँचों पांडवों को धारण करा दी।147 एक कन्या द्वारा पाँच पुरुषों का वरण यह अद्भुत और अभूतपूर्व प्रसंग था। क्या यह अनीतियुक्त नहीं है ? अब राजा द्रुपद क्या करे? नीतिमान श्रीकृष्ण के मत की ही प्रतीक्षा सभी करने लगे। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के कृत्य में औचित्य का अनुमोदन कर दिया और द्रौपदी का विवाह पाँचों पांडवों के साथ संपन्न हो गया ।148 श्रीकृष्ण के इस मत की कि द्रौपदी ने कोई अनुचित कार्य नहीं किया है, पुष्टि भी तत्काल हो गयी, जब एक चारण लब्धिधारी श्रमण ने भी यह स्पष्ट किया कि कर्मफलानुसार द्रौपदी को ऐसा ही करना था, चाहे यह लोक परंपरानुरूप न लगे। उसने पूर्वभव में निदान ही ऐसा किया था। १४५. भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन पृ० ६४ ले० __ देवेन्द्र मुनि शास्त्री। १४६. (क) ज्ञातासूत्र अध्याय १६ (ख) त्रिषष्टि : ८/१० । १४७. (क) ज्ञातासूत्र अ० १६. (ख) पांडवचरित्र-देवप्रभसूरि सर्ग ४ । १४८. वैदिक परंपरा में भी द्रौपदी के ५ पति तो हैं, किंतु उसने स्वयंवर सभा में पांचों का वरण नहीं किया था। स्वयंवर में राधावेध की कसौटी रखी गयी थी, और अर्जुन उसमें सफल रहा था। द्रोपदी ने अर्जुन को ही वरमाला पहनाई थी। अर्जुन ने माता कुंती से कहा कि मां मैं एक असाधारण वस्तु लेकर आया हूं। मां ने इस बात को सहजता के साथ लिया और अर्जुन से कहा कि लाए हो तो पांचों भाई उसे बांट लो। पांडव चरित्र में देवप्रभसूरि ने भी राधावेध का चित्रण किया है। अर्जुन के सफल रहने पर द्रौपदी ने उसे वरमाला पहनाई। किंतु, द्रौपदी का मन पांचों पांडवों के प्रति अनुरक्त था, इस कारण माला पांचों के गले में दिखाई देने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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