________________
प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
१६५ शक्ति के समक्ष संसार को तिनके सा मानता हूँ ।142 वे अरिष्टनेमि का आदर करने लगे और उन्हें अपनी राज्यसत्ता के लिए चिन्ता भी होने लगी जो इस घोषणा से समाप्त हुई कि अरिष्टनेमि कुमारावस्था में ही प्रव्रज्याग्रहण कर लेंगे । शक्ति परीक्षण का यह प्रसंग हरिवंशपुराण में अन्य प्रकार से भी वर्णित है।143 अनासक्त अरिष्टनेमि और राजीमति
अरिष्टनेमि आरम्भ से ही चिन्तनशील, गंभीर और अनासक्त स्वभाव के थे और आयु के साथ-साथ उनकी इस प्रवृत्ति में भी विकास होता गया। उनकी जगद्विमुखता से माता-पिता चिंतित थे। उन्होंने अनेक बार उपयुक्त विवाह प्रस्ताव भी रखे, किंतु दीक्षोत्सुक पुत्र अस्वोकार ही करता रहा। अरिष्टनेमि के पराक्रम को मंद करने के प्रयोजन से श्रीकृष्ण भी उनके परिणय के पक्ष में थे। इस तर्क के साथ उन्होंने अरिष्टनेमि से विवाहार्थ आग्रह किया कि आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने भी विवाह किया था तथा दांपत्य जीवन बिताया था। अंततः वे सहमत हो गये और श्रीकृष्ण ने भोजवंशी राजा उग्रसेन की कन्या राजीमती के साथ उनका संबंध स्थिर कर दिया। यथासमय वरयात्रा आरम्भ हुई। वर अरिष्टनेमि का रथ जब कन्या के द्वार के समीप पहुँचा, उन्होंने अनेक पशु-पक्षियों को का करुण, आर्त स्वर सुना । पूछने पर ज्ञात हुआ कि बारात के सामिष भोजन के लिए अनेक पश पक्षियों को समीप ही में एकत्रित कर रखा है। करुणार्द्र अरिष्टनेमि ने पशु पक्षियों को मुक्त करा दिया और तोरण से ही लौट कर द्वारका पहुँच गये। उत्सव अपूर्ण और वातावरण शोकाकुल हो गया।144 अरिष्टनेमि ने मांसाहार के विरुद्ध सफल विद्रोह जन-जन में फैला दिया। द्वारका में एक वर्ष तक वर्षीदान कर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। राजीमती ने भी संयम ग्रहण किया। वैदिक परंपरा में राधा और कृष्ण को जो स्थान प्राप्त है, जैन परंपरा में वैसा ही स्थान राजीमती और अरिष्टनेमि का है। राजीमती के मन में भौतिक वासना के लिए कोई स्थान न था। वह
१४२. (क) त्रिषष्टि ८/९, २५ से २६ पृ० १३०-१३६ । (ख) उत्तराध्ययन सुखबोधा,
प० २७८ (ग) भवभावना ३०२६ (घ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका। १४३. हरिवंशपुराण : आचार्य जिनसेन पृ० ५५ १४४. उत्तर पुराण में वर्णित है कि अरिष्टनेमि के मन में करुणा को प्रबल बना
कर उन्हें विरक्त कर देने के प्रयोजन से स्वयं श्रीकृष्ण ने ही बाड़े में पशुओं को एकत्रित करवाया था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org