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________________ १६२ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य प्रचंडता के साथ ही समरारंभ हआ। दोनों पक्षों के बीच विकट घात-प्रतिघात होने लगा। आरंभ में ही यादवों के सशक्त प्रहार से तिलमिलाकर जरासंध सैन्य भाग खड़ा हुआ, पर क्रोध व प्रतिहिंसा का साक्षात रूप जैसे बने हुए जरासंध ने रणांगण में आकर जो प्रहार किये तो समुद्रविजय के अनेक पुत्र धराशायी हो गये। जरासंध के २८ पुत्रों का बलराम ने बध कर दिया तो उन्हें जरासंध ने गदा प्रहार से अचेत कर दिया। श्रीकृष्ण ने जरासंध के ६ पुत्रों का वध कर दिया तो उसने इतना प्रचंड आक्रमण किया कि एक बार तो श्रीकृष्ण के वध हो जाने का प्रवाद भी सेना में व्याप्त हो गया। मातली के अनुरोध पर अरिष्टनेमि ने पौरंदर शंखध्वनित कर शत्रु-पक्ष को कंपित कर दिया और बाणवर्षा से व्यापक संहार किया। प्रतिवासुदेव का वध वासुदेव के हाथों ही होना चाहिये इस मर्यादानुसार उन्होंने स्वयं जरासंध का वध नहीं किया।182 अब श्रीकृष्ण व जरासंध आमने-सामने थे । जरासंध ने अनेक विकट अस्त्र-शस्त्र जब विफल रहे तो उसने अमोघ अस्त्र चक्र का प्रयोग किया, पर वह भी श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा कर उनके ही हस्तगत हो गया।133 उसी समय घोषणा हुई कि नौवां वासुदेव उत्पन्न हो गया है। जब श्रीकृष्ण के सावधान करने पर भी जरासंध सन्मार्ग पर नहीं आया तो श्रीकृष्ण ने चक्रप्रहार से जरासंध का शिरच्छेद कर दिया ।134 सर्वत्र श्रीकृष्ण की जय-जयकार होने लगी ।135 १३१. त्रिषष्टि : ८/७/४२०-४२६ १३२. त्रिषष्टि : ८/७/४३२ १३३. (क) त्रिषष्टि : ८/७/४४६-४५७ (ख) हरिवंशपुराण : ४२/६७/६०१ १३४. वैदिक परंपरा में युद्ध का वर्णन भिन्न ही प्रकार का है। महाभारत के अनुसार युद्ध नहीं होता, अपितु केवल जरासंध वध होता है। कंस वध के पश्चात् जरासंध श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मान बैठा था। उसने १७ बार मथुरा पर आक्रमण किया, किंतु विजय उसे नहीं मिली। मथुरा की प्रजा को व्यर्थ ही में पीडित देखकर श्रीकृष्ण ने यह नगर त्यागकर द्वारका का निर्माण किया। श्रीकृष्ण इस तथ्य से अवगत थे कि युद्ध में जरासंध का वध संभव नहीं है। अतः वे भीमसेन व अर्जुन के ब्राह्मण वेश में जरासंध के दरबार में पहुंचे। राजा ने स्वागत कर इनके आगमन का प्रयोजन पूछा। श्रीकृष्ण ने शेष दो ब्राह्मणों के विषय में कहा कि अभी इनका मौनव्रत है। अर्द्धरात्रि को वार्ता संभव होगी, इन्हें सादर यज्ञशाला में ठहराया गया। अर्द्धरात्रि को जरासंध यज्ञशाला में पहुंचा । उसने कहा--आप लोगों का तेज देखते हुए आप ब्राह्मण तो प्रतीत नहीं होते ? श्रीकृष्ण ने तब तीनों का वास्तविक परिचय देते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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