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________________ १५८ जन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य और उसे सन्देह हुआ कि इसे विद्याएं प्राप्त हैं । लौटकर कालसंवर ने कंचनमाला से अपनी विद्याएं लौटाने को कहा, किंतु वह तो प्रद्युम्न को दे चुकी थी । पत्नी के दुराचार को समझकर उसने उसकी भर्त्सना की और प्रायश्चित्त हेतु प्रद्युम्न के पास लौटा। तभी नारद जी आ गये जिन्हें प्रद्युम्न ने प्रज्ञप्ति विद्या से पहचान लिया और वह उनके साथ द्वारका के लिए चल पड़े । 122 सत्यभामा प्रसन्न थी; आज उसके पुत्र के विवाह का दिन था । रुक्मिणी उदास थी । पति-पुत्र युक्त होते हुए भी उसे केश कटवा कर कुरूप बनना होगा । वह चिंतामग्न थी कि इसी समय द्वार पर लघु मुनि ने आकर कहा - मैं १६ वर्षीय दीर्घ तपस्वी हूँ, मुझे आहार दान दो । घर में केवल सिंह केसरिया मोदक थे, जिन्हें श्रीकृष्ण ही पचा सकते थे । मुनि ( प्रद्युम्न) | सारे मोदक खा गये। 123 इसी समय केश काटने को सत्यभामा की दासियां आ गयीं, किन्तु प्रद्युम्न ने सत्यभामा सहित इन दासियों को विद्याप्रयोग से केशरहित कर दिया । शर्त पूरी करवाने में सहायता के लिए सत्यभामा श्रीकृष्ण के पास गयी जिन्होंने बलराम को रुक्मिणी के पास भेजा । उन्होंने श्रीकृष्ण को रुक्मिणी के पास देखा और लौट आये । रुक्मिणी को यह जानकर हर्ष हुआ कि मुनि उसी का पुत्र प्रद्युम्न है । विद्या से प्रद्युम्न ने दुर्योधन की राजकुमारी का अपहरण कर लिया । दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी। श्रीकृष्ण ने कहा- मैं तो स्वयं १६ वर्षों से पुत्र वियोगी हूँ, सर्वज्ञ नहीं हूँ, मैं क्या सहायता करूं ? इस पर प्रद्युम्न ने अनुमति लेकर राजकुमारी को वहीं उपस्थित कर दिया और उसका भानु के साथ पाणिग्रहण करवाया । 124 इसके पूर्व अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होने के पहले उसने माता रुक्मिणी को रथ में बिठाकर श्रीकृष्ण को ललकारा कि मैं इसका अपहरण कर ले जा रहा हूँ, तुममें शक्ति हो तो रोको । भीषण युद्ध हुआ और मुनिवेशधारी प्रद्यम्न ने श्रीकृष्ण को शस्त्रविहीन कर दिया । उनकी सेना बिखर गयी । श्रीकृष्ण का दक्षिण नेत्र १२२. ( क ) त्रिषष्टि : ८ / ६ / १३० से ४०४ (ख) प्रद्युम्नचरित्र : महासेनाचार्य (ग) प्रद्युम्नचरित्र महाकाव्य सर्ग ५ ८, पृ० १०४ ले० रत्नचन्द्र गणी । (घ) प्रद्युम्नचरित्र अनुवाद : चारित्रविजय, पृ० १४५ तक १२३. वसुदेवहिण्डी में मोदक के स्थान पर खीर का वर्णन आता है । देखें - वसुदेवहिण्डी पृ० ९५ प्रथम भाग १२४. त्रिषष्टि : ८ /७/१-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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