SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य द्वारका-निर्माण ___ यादव दल सौराष्ट्र में रैवतक पर्वत के समीप शिविर डाले था कि सत्यभामा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। यहीं पर यादवों को नगर बसाना था। श्रीकृष्ण ने समुद्र पूजन के पश्चात् अष्टम भक्त तप आरंभ किया और लवणसागर का स्वामी सुस्थित देव प्रकट हआ। देव ने श्रीकृष्ण को पांचजन्य और बलराम को सुघोष नामक शंख व रत्नादि भेंट किये 7 और निर्देश चाहा कि, वह क्या सेवा कर सकता है ? श्रीकृष्ण ने कहा-पूर्व वसुदेव की द्वारका इसी स्थल पर थी जिसे तुमने जलमग्न कर दिया था। अब वैसी ही द्वारका पुनः निर्मित करो। सुस्थित देव से वृत्तांत जानकर इंद्र ने कुबेर को आदेश दिया, जिसने द्वारका का निर्माण करवाया ।98 कबेर ने श्रीष्ण को दो पीतांबर, नक्षत्रमाला, हार, मकूट, कौस्तुभमणि, शारंग धनुष, अक्षय बाण तुणीर, नंदन खड्ग, कौमदी गदा और गरुडध्वज रथ उपहार में भेंट किये। इसी प्रकार बलराम को दो नील वस्त्र, वनमाला, मूसल, अक्षय बाण तुणीर, धनुष और हल का उपहार दिया गया। श्रीकृष्ण के पूज्य सभी दशाओं को भी रत्नजटित आभूषणादि उपहार दिये गये । यादवों ने शत्रुसंहारक श्रीकृष्ण का राज्याभिषेक किया और वे द्वारकाधीश हो गये । और, तब यादव कुल का द्वारका में प्रवेश हुआ। रुक्मिणी प्रसंग श्रीकृष्ण का द्वारका में अनुशासन चल रहा था। श्रीकृष्ण प्रजावत्सल, विनम्र और मृदु नरेश थे। वैभव और सुखाधिक्य के कारण द्वारावती देवपुरी-समकक्ष थी। एक दिन नारद जी राजभवन में पहुंचे। विनम्रता और श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण ने उनका हार्दिक स्वागत किया। एक प्रश्न उनके मन में मचल उठा कि श्रीकृष्ण की भांति ही रानियां भी विनम्र हैं अथवा नहीं ? नारद जी अंतःपुर में पहुंचे । रानियों ने उनका स्वागत नम्रता से किया, किंतु शृंगार-व्यस्त सत्यभामा से उनकी उपेक्षा हो गयी। नारद जी ने निश्चय किया कि सत्यभामा का अपहरण अनिवार्य है। और, वे अंत:पुर से लौट गये। १७. (क) त्रिषष्टि : ८/५/३६१-३६५ (ख) भवभावना : २५६५ ६८. (क) त्रिषष्टि : ०/५ (ख) भवभावना :२५७१-२५६८ (ग) हरिवंशपुराण ५१/३२-३७ पृ० ५०१ ६६. (क) त्रिषष्टि : ८/६/७-६ (ख) भवभावना : २६३८-३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy